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________________ ७२ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास सार्ध मासिक-२, द्विमासिक - ६, सार्ध द्विमासिक - २, त्रिमासिक - २, चातुर्मासिक - ९, पाँच दिन कम षट्मासिक- १ तथा षट्मासिक - १ उपवास किये। भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर भगवान् महावीर के ग्यारह गणधर हुये थे। जिनके मन में जीव और जगत के विषय में विभिन्न शंकायें थीं। उन लोगों की शंकाओं का निवारण भगवान् महावीर द्वारा किये जाने के पश्चात् वे सभी उनके शिष्य बन गये और गणधर कहलाये । १. इन्द्रभूति गौतम, जिनके मन में आत्मा के अस्तित्व के विषय में शंका थी। शंका समाधान होने पर उन्होंने अपने ५०० शिष्यों के साथ महावीर का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। २. अग्निभूति, जिनके मन में पुरुषाद्वैत के विषय में शंका थी । शंका समाधान के पश्चात् उनहोंने अपने ५०० शिष्यों के साथ महावीर का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। ३. वायुभूति, जिनके मन में तज्जीव- तच्छरीरवाद के विषय में शंका थी । शंका निवारण के पश्चात् उन्होंने अपने ५०० शिष्यों के साथ महावीर के शिष्यत्व को स्वीकार कर लिया। ४. व्यक्त, जिनके मन में ब्रह्ममय जगत के विषय में शंका थी । शंका निवारण के पश्चात् वे अपने ५०० शिष्यों के साथ महावीर के शिष्य बन गये । ५. सुधर्मा जिनके मन में जन्मान्तरण के विषय में शंका थी । शंका समाधान के पश्चात् उन्होंने अपने ५०० शिष्यों के साथ महावीर का शिष्यत्व स्वीकार कर लिया। ६. मंडित, जिनके मन में आत्मा के संसारित्व के विषय में शंका थी । शंका समाधान के पश्चात् उन्होंने अपने ३५० शिष्यों के साथ महावीर के शिष्यत्व को स्वीकार कर लिया । ७. मौर्यपुत्र, जिनके मन में देव और देवलोक के विषय में शंका थी । शंका समाधान के पश्चात् उन्होंने अपने ३५० शिष्यों के साथ महावीर को अपना गुरु बना लिया। ८. अकंपित, जिनके मन में नरक और नारकीय जीवों के विषय में शंका थी। शंका समाधान के पश्चात् उन्होंने अपने ३५० शिष्यों सहित महावीर के शिष्यत्व को स्वीकार कर लिया। ९. अचल भ्राता के मन में पुण्य-पाप के विषय में शंका थी। शंका निवारण के पश्चात् उन्होंने अपने ३५० शिष्यों के साथ महावीर के शिष्यत्व को स्वीकार कर किया। १०. मेतार्य, जिनके मन में पुनर्जन्म सम्बन्धी मान्यताओं के विषय में शंका थी । शंका समाधान के पश्चात् उन्होंने अपने ३०० शिष्यों के साथ महावीर के शिष्यत्व को स्वीकार कर लिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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