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________________ ५७ भगवान् ऋषभदेव से महावीर तक सुमंगला की कुक्षि से भरत और ब्राह्मी तथा सुनन्दा की कुक्षि से बाहुबलि और सुन्दरी का जन्म हुआ।१२ सुनन्दा के इन दो सन्तानों के अतिरिक्त ९८ पुत्र और थे । सामाजिक-व्यवस्था के रूप में ऋषभदेव ने विवाह-व्यवस्था को क्रियान्वित करने के पश्चात् उन्होंने सर्वप्रथम असि अर्थात् सैन्य वृत्ति, मषि अर्थात् लिपि विद्या और कृषि अर्थात् खेती के कार्य की शिक्षा दी। कोई बाहरी शक्ति राज्य शक्ति को चुनौती न दे इसलिए सैन्य-व्यवस्था को संगठित किया, जिसके अन्तर्गत, हाथी, घोड़े व पदातिक सेना को सम्मिलित किया।२३ चार प्रकार की दण्डनीति को निर्धारित कर उसे चार भागों में विभक्त किया- परिभाष, मण्डलबन्ध, चारक और छविच्छेद१४ परिभाष के अन्तर्गत अपराधी व्यक्ति को आक्रोशपूर्ण शब्दों के साथ प्रताड़ित किया जाता था। मण्डलबन्ध दण्डनीति के अन्तर्गत सीमित क्षेत्रके अन्तर्गत रखा जाता था। चारक के अन्तर्गत अपराधी को बन्दीगृह में बन्द कर दिया जाता था। छविच्छेद में अपराधी के अंगोपांग का छेदन-भेदन किया जाता था। छविच्छेद का एक अर्थ आजीविका या वृत्तिछेद भी है।। ___आदिनाथ ने अपनी दोनों पुत्रियों को लिपिज्ञान एवं गणित की शिक्षा देकर शिक्षा-व्यवस्था की नींव डाली। अपनी प्रथम पत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अठारह लिपियों का ज्ञान कराया।१५ द्वितीय पुत्री सुन्दरी को बायें हाथ से गणित का अध्ययन कराया जिसके अन्तर्गत मान, उन्मान, अवमान, प्रतिमान आदि मापों से भी अवगत कराया१६ ब्राह्मी को अ, आ, इ, ई, उ,ऊ आदि को पट्टिका पर लिखकर वर्णमाला का ज्ञान कराया।१७ शिक्षा-व्यवस्था को सुदृढ़ करने व प्रजा के हित के लिए पुरुषों को बहत्तर व स्त्रियों को चौसठ कलाओं का परिज्ञान कराया । ऋषभदेव ने कर्मणा वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र इन तीन वर्णों की व्यवस्था कर सामाजिक व्यवस्था की सुदृढ़ नीव डाली। वर्तमान जन्मना वर्ण एवं जाति-व्यवस्था (जातिगत) की अपेक्षा कर्मणा वर्ण-व्यवस्था अधिक प्राचीन है। एक दिन अचानक चिन्तन करते-करते ऋषभदेव को अवधिज्ञान से पूर्वभव की साधना का ज्ञान हो गया और वे साधना के पथ पर चल पड़े। अपने बड़े पुत्र भरत को विनीता (वर्तमान अयोध्या) के सिंहासन पर आसीन किया और बाहुबली को तक्षशिला राज्य का अधिपति बनाकर चैत्र कृष्ण अष्टमी को जगत की समस्त पापवृत्तियों का त्याग कर सिद्धार्थ उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे उत्तरा आषाढ़ नक्षत्र में षष्ठ भक्त के तप से युक्त होकर चतुर्मुष्टिक लोच किया और प्रथम परिव्राट कहलाये९ ऐसी मान्यता है कि आदि प्रभु ऋषभदेव के साथ ४००० पुरुषों ने भी दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षोपरान्त भगवान् ऋषभदेव सौम्य भाव और अव्यथित मन से भिक्षा के लिये गाँव-गाँव घूमने लगे। घोर अभिग्रह को धारण किये हुये भगवान् के समक्ष श्रावक अन जल के अतिरिक्त भक्ति-भावना से अपनी रूपवती कन्याओं, बहुमूल्य वस्त्रों, अमूल्य आभूषणों और गज, तुरंग, रथ, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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