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भगवान् ऋषभदेव से महावीर तक कायोत्सर्ग-मुद्रा, नासाग्रदृष्टि, योगचर्या, बैल आदि के चिह्न मिले हैं जो जैनधर्म की प्राचीनता को दर्शाते है। खुदाई में प्राप्त मुहरों के अध्ययन के पश्चात् प्रो० राम प्रसाद चन्दा ने लिखा है- सिन्धु मुहरों में से कुछ मुहरों पर उत्कीर्ण देवमूर्तियाँ, जो योगमुद्रा में अवस्थित है न केवल उस प्राचीन युग में सिन्धुघाटी में प्रचलित योग परम्परा पर प्रकाश डालती है। वरन् उन मुहरों में खड़े हुये देवता की योग की खड़ी मुद्रा जैनधर्म की प्राचीन साधना-विधि को भी प्रकट करती हैं। खड़ी कायोत्सर्ग मुद्रा जैन परम्परा में प्रचलित साधना-पद्धति की परिचायक है। 'आदिपुराण' (सर्ग १८) में ऋषभ अथवा वृषभ की तपश्चर्या के सिलसिले में कायोत्सर्ग मुद्रा का वर्णन आया है। मथुरा के शासकीय पुरातत्त्व संग्रहालय में एक शिलाफलक पर जैन तीर्थकर ऋषभ की खड़ी हुई कायोत्सर्ग मुद्रा में चार प्रतिमायें मिलती है, जो ईसा की द्वितीय शताब्दी की निश्चित की गयी है। मिश्र स्थापत्य कला में भी कुछ नग्न प्रतिमायें ऐसी भी मिलती हैं जिनकी भुजाएँ दोनों ओर लटकी हुई है। यद्यपि मुद्रा में समरूपताएं हैं किन्तु उनमें वैराग्य की वह झलक दिखाई नहीं पड़ती, जो सिन्धु घाटी की खड़ी मूर्तियों में दिखती हैं।२ ।।
ऋषभदेव की प्राचीनता पर प्रकाश डालते हुये श्री रामधारीसिंह 'दिनकर' लिखते है- मोहनजोदड़ों की खुदाई में योग-साधना के प्रमाण मिले है, जो जैन मार्ग के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव से सम्बन्धित हो सकते हैं, जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है जैसी कालान्तर में वह शिव के साथ सम्बन्धित रही है। इस दृष्टि से कई जैन विद्वानों का यह मानना अयुक्ति संगत नहीं दिखता कि ऋषभदेव वेदोल्लिखित होने पर भी वेदपर्व है।३।।
ऋग्वेद में ऋषभदेव की स्तुति करते हुये कहा गया है- हे देव! मुझे समान पदवाले व्यक्तियों में श्रेष्ठ बना, (कषाय रूपी) शत्रुओं को विशेष रूप से पराजित करने में समर्थकर, शत्रुओं का नाश करनेवाला और विशेष प्रकार से अत्यन्त शोभायमान होकर गायों का स्वामी बना। ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल में एक उद्धरण है- यह देव चार सींग तीन पैर, सात हाथ से युक्त है। यह महान देव मनुष्यों में प्रविष्ट है। ऋग्वेद का यह उद्धरण एक ओर जहाँ ऋषभदेव की ऐतिहासिकता की ओर संकेत करता है वहीं जैन धर्म-दर्शन के मौलिक सिद्धान्तों का भी निरूपण करता है। प्रतिकात्मक रूप से इस उद्धरण का विश्लेषण कुछ इस प्रकार भी हो सकता है- वह अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, आनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूपी चार सींगों से युक्त, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र रूपी तीन पैरों वाला और सात तत्त्वों का प्रतिपादक अथवा सप्त भयों से मुक्त और सप्तविनय से युक्त है। अन्य रूप में वह सप्तनय और सप्तभंगी के प्रतिपादक है। अथर्ववेद में ऋषभदेव को तारणहार के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए कहा गया है कि जो ब्राह्मण, ऋषभ को अच्छी तरह से प्रसन्न करता है वह शीघ्र सैकड़ों प्रकार के तापों से मुक्त हो जाता है, उसको सब दिव्य गुण तृप्त करते
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