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________________ द्वितीय अध्याय भगवान् ऋषभदेव से महावीर तक कोई भी परम्परा शून्य से उत्पन्न नहीं होती है। किसी न किसी रूप में वह अपनी पूर्व परम्पराओं से सम्बद्ध रहती है और अपनी पूर्व परम्परा को स्वीकार भी करती है। स्थानकवासी परम्परा भी अपने को अपनी पूर्व परम्परा के रूप में इस अवसर्पिणी काल के आदि तीर्थकर ऋषभदेव से सम्बद्ध मानती है और उसी सम्बद्धता को स्वीकार करते हुये अपना इतिहास ऋषभदेव तक ले जाती है। अत: स्थानकवासी सम्प्रदाय के इतिहास को प्रस्तुत करते समय हम उसकी पूर्व परम्परा को उपेक्षित नहीं कर सकते। इसी दृष्टि से प्रस्तुत अध्याय में हम सर्वप्रथम ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त चौबीस तीर्थकरों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करेंगे। उसके पश्चात् तृतीय अध्याय में सुधर्मा से लेकर देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण तक की उस आचार्य परम्परा का उल्लेख करेंगे, जो मुख्य रूप से 'कल्पसूत्र' एवं 'नन्दीसूत्र' की स्थविरावली में उल्लेखित हैं और श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के साथ-साथ स्थानकवासी सम्प्रदाय को भी मान्य है। भगवान् ऋषभदेव भगवान् ऋषभदेव मानव संस्कृति के आदि संस्कर्ता व निर्माता माने जाते हैं। जैन परम्परा इस अवसर्पिणी काल में जैनधर्म का प्रारम्भ भगवान् ऋषभदेव से मानती है। भगवान् ऋषभदेव न केवल प्रथम तीर्थकर ही थे अपितु मानवीय सभ्यता के आदि पुरोधा भी थे। समाज-व्यवस्था, राज्य व्यवस्था और धर्म व्यवस्था तीनों के ही वे आदि पुरुष माने गये हैं। वर्तमान अवसर्पिणी काल में संन्यास-मार्ग के वे प्रथम प्रवर्तक भी थे। इस देश में ऋषि-मुनियों की जिस निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा का विकास हुआ उसके भी वे प्रथम प्रस्तोता माने जाते हैं। उनके जीवन और व्यक्तित्व व उनकी धर्मक्रान्ति के सम्बन्ध में न केवल जैनग्रन्थों में उल्लेख मिलते हैं अपितु जैनेतर ग्रन्थों में भी उल्लेख मिलते हैं। भगवान् ऋषभदेव की ऐतिहासिकता जानने व प्रमाणित करने के लिए हमारे समक्ष दो आधारबिन्दु हैं। १. पुरातात्त्विक उत्खनन से प्राप्त सामग्री और २. साहित्यिक साक्ष्य । मोहनजोदड़ों जिसका काल ३२५०-२७५० ई० पू० माना जाता है, की खुदाई में प्राप्त मोहरों में एक ओर नग्न ध्यानस्थ योगी की आकृति बनी है तो दूसरी ओर वृषभ का चिह्न है। वृषभ भगवान् ऋषभदेव का लांछन माना जाता है। सर जॉन मार्शल ने लिखा है कि मोहनजोदड़ों में एक त्रिमुखी नरदेवता की मूर्ति मिली है। वह देवता एक कम ऊँचे पीठासन पर योग मुद्रा में बैठा है। उसके दोनों पैर इस प्रकार मुड़े हैं कि एड़ी मिल रही है, अंगूठे नीचे की ओर मुड़े हुये हैं एवं हाथ घुटने के ऊपर आगे की ओर फैले हये हैं। साथ ही मोहनजोदड़ों से प्राप्त एक अन्य मुद्रा पर अंकित चित्र में त्रिरत्न का मुकूट विन्यास, नग्नता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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