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________________ परिशिष्ट ५१५ अणगार तेहनी निश्राई आवईं। अनइ मई तु वज्र मुक्युं छइ। तउ तो अरिहंत भगवंत अणगार नी आशातनाई मुझनई महादुःख हुई।" एतलइ जोउनइं अरिहंत भगवंत अणगारनी आशातना कही। पणि कांईं प्रतिमानी आशातना न कही। एतलई सौधर्मेन्द्रई अरिहंत अनइ चैत्यशब्दइं भगवतं कह्या। पणि प्रतिमा कांई न कही। एतलइ अरिहंत चैत्य ए शब्द ना अर्थ इहां भगवत कह्या दीसई छई। अनइ वृत्ति मांहि पणि अरिहंत फलाव्या छई। पणि प्रतिमा नथी फलावी। डाहु हुइ ते विचारी जोज्यो । ए बारमु बोला १३. तेरमु बोल. हवइ तेरमु बोल लिखीइ छइ, तथा श्री उववाई उपांग मध्ये अंबड़ श्रावक नई अधिकारइं एहवा शब्द छइं जे "ननत्थ अरहंते वा, अरिहंत चेइयाणि वा।" तिहां केतलाएक इम कहई छई जे 'अरिहंत चेइशब्दई प्रतिमा।' तेहना प्रत्युत्तर लिखीइ छ।। "अरिहंत चेइयाणि वा” ए बेहू शब्दई अरिहंत ज जाणिवा । केतला एक इम कहस्यइं जे अरिहंतनइं बिहू शब्दई कां कहीइ? वा शब्दई तु विकल्प हुइ। “तउ जोउनइं सिद्धान्त मांहिं ठामि-ठामि इम कहिंडं जे “समणं व माहणं वां" एक साधुनइं बेहू नाम कह्यां। तथा वा शब्द पणि कर्वा । तथा श्री सूअगडांग अध्ययन सत्तरमइ एक साधु ना तेरे नाम कह्यां छइं अनइ तेरे नामइ वा शब्द पणि कहिउ छइ। ते लिखीइ छइ"समणेति वा, माहणेति वा, खंतेति वा, दंतेति वा, गुत्तेति वा, मुत्तेति वा, ईसीति वा, मुणोति वा, किइति वा, विदूति वा, भिक्खूति वा, लूहेति वा, तीरड्डीति वा।" इम वली एक वस्तु नां घणां घणां नाम आई छई। तथा वली वृत्तिकारइं पणि "अरिहंते वा, अरिहंतचेइयाणि वा"- तिहां अरिहंतज फलाव्या छई। तथा चेइ शब्दई सूत्रमांहि घणइ ठामई अरिहंत कह्या छइं- "तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया समणं भगवं महावीरं वंदामो" इत्यादि। बीजा आलावइ, तथा केतलाएक इम कहई छई, जे वृत्तिकारइं उघाड़ा माटइं न फलाब्या। तउं - तउं जोउनइ चेइ शब्द उघाड़उ के अरिहंत शब्द उघाड़उ? जड उखाड़उ शब्द न फलावई, तउ इहाई अरिहन्त शब्द फलाव्यउ जोइइ, नहीं । डाहा हुइ ते विचारी जोज्यो । एह तेरमु बोल। १४. चउदमु बोल हवइ चउदमु बोल लिखीइ छइ। तथा श्री उपासकदशांगमध्ये आणंद श्रावकनई अधिकारई केतलाएक इम कहई छई जे प्रतिमा आराध्या छई । तेहना प्रत्युत्तर प्रीछ"नो कप्पई" कहिउं ते मांहि तउ आपणनई सम्बन्ध कांई नथी आपणनई तु सम्बन्ध कप्पइ मांहि छइ, अनइ कप्पइ मांहिं तु प्रतिमा न कही। तथा नो कप्पइ मांहिं केतला एक इम कहई छई जे 'अन्यतीर्थीपरिगृहीत' चैत्य न कल्पइ। तउ अणपरिगहीत कल्पइ। तेहना प्रत्युत्तर प्रीछउ- इहां प्रतिमानउ स्यु अधिकार छइ? इहां तउ इम कह्यु जे "जां लगइ ए न बोलावई हूं पूर्वि न बोलु तथा अनपानादिक न देउ” तउ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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