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________________ ४६८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास हो गये । वि०सं० १९६५ के थांदला चातुर्मास से आपने आभ्यंतर तप भी प्रारम्भ कर दिये। संस्कृत, प्राकृत, व्याकरण, दर्शन आदि विषयों का आपने गहन अध्ययन किया। वि०सं० १९९० फाल्गुन शुक्ला तृतीया को जावद में आप युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए । वि०सं० १९९९ आषाढ़ सुदि को आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। जयपुर में आचार्य तुलसी से आपकी धार्मिक मान्यताओं पर चर्चा हुई थी। सादड़ी सन्त सम्मेलन में आपने स्पष्ट शब्दों में कहा था- ‘एक सामाचारी, एक शिष्य परम्परा, एक हाथ में प्रायश्चित्त व्यवस्था और एक आचार्य के नेश्राय में समस्त साधु-साध्वी साधना करने की भावना रखते हों तो मैं और मेरे नेश्राय में रहनेवाले समस्त साधु-साध्वी एकता के लिए अपने आपको विलीन करने में सर्वप्रथम रहेंगे।' इसी प्रकार अलवर के श्रीसंघ में आपने घोषणा की मुझे किसी सम्प्रदाय विशेष के प्रति मोह, ममता या लगाव नहीं है। संत जीवन ममता विहीन होना चाहिए। किन्तु कर्तव्य की पालना के लिए सम्प्रदाय के अन्दर रहकर कार्य करना पड़ता है। यदि एक आचार्य के नेश्राय में एक सामाचारी आदि का निर्णय करते हुए संयम-साधना के पथ पर चारित्रिक दृढ़ता के साथ अग्रसर होने की स्थिति के योग्य कोई संगठन बनता है तो मैं प्रथम होऊँगा और अपनी आचार्य पदवी छोड़कर संगठन के अधीन संघ की सेवा के लिए सहर्ष तत्पर रहूँगा। श्रमण संघ में विलीन होने पर आप संघ के उपाचार्य हुए, किन्तु ई० सन् १९६० तदनुसार वि० सं० २०१७ में कुछ मतभेदों के कारण श्रमण संघ से त्याग पत्र दे दिया और पुन: अपने संघ के साथ अलग हो गये। इस समय संघ के मुनि श्री श्रेयमलजी आदि कुछ सन्त श्रमण संघ के साथ ही रहे, किन्तु अधिकांश सन्त-सती आपके साथ ही रहे। शारीरिक अस्वस्थता के कारण वि० सं० २०१७ में संघ का उत्तरदायित्व मुनि श्री नानालालजी जो आचार्य श्री नानेश के नाम से जाने जाते है, को सौप दिया । माघ कृष्णा द्वितीया वि०सं० २०१९ में आप स्वर्गस्थ हुये। आचार्य श्री नानालालजी आपका जन्म वि० सं० १९७७ ज्येष्ठ सुदि द्वितीया को उदयपुर के निकटस्थ दांता ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्री मोड़ीलालजी पोखरना तथा माता का नाम श्रीमती शृंगारकुंवरबाई था। आठ वर्ष की बाल्यावस्था में ही आपके पिता का स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात् १३ वर्ष की आयु में आप अपने चचेरे भाई के साथ व्यापार में संलग्न हो गये। आपके बचपन का नाम गोवर्धन था। १७ वर्ष की अवस्था में वि०सं० १९९४ में आप मुनि श्री जवाहरलालजी व मुनि श्री चौथमलजी के सम्पर्क में आये। मुनि श्री के मंगल प्रवचन ने आपके मन में वैराग्य के बीजांकुर का कार्य किया। फलतः १९ वर्ष की अवस्था में आपने वि०सं० १९९६ पौष सुदि अष्टमी को कपासन (उदयपुर) में ज्योतिर्धर आचार्य श्री जवाहरलालजी के शासन में युवाचार्य श्री गणेशीलालजी के श्री मुख से आर्हती दीक्षा अंगीकार की। दीक्षोपरान्त आपने संयम-साधना के साथ-साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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