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________________ आचार्य हरजीस्वामी और उनकी परम्परा ४६७ माघ कृष्णा सप्तमी को हुई । वि०सं० १९५७ में आप आचार्य पद पर आसीन हुए। आपके प्रवचनों से प्रभावित होकर न केवल जैन मतावलम्बी अपितु अन्य लोगों ने भी तप आराधना आदि के प्रत्याख्यान लिये । परम्परा से ऐसा ज्ञात होता है कि वि०सं० १९६३ के रतलाम चातुर्मास में तपश्चर्या की धूम थी। यहाँ तक की कसाईयों ने भी आपके प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए अपनी दुकानें बन्द रखी थीं। वि० सं० १९६७ में आपने पाँच दीक्षाएँ सम्पन्न करवायीं। आपकी प्रवचन शैली अद्भूत थी । ५१ वर्ष की अवस्था में वि० सं० १९७७ में आषाढ़ शुक्ला तृतीया को संथारापूर्वक आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य श्री जवाहरलालजी आचार्य श्री लालजी के बाद हुक्मीसंघ के छठे आचार्य मुनि श्री जवाहरलालजी हुए। आपका जन्म वि०सं० १९३२ में मालवा प्रान्त के थाँदला ग्राम में श्री जीवराजजी के यहाँ हआ। आपकी माता का नाम श्रीमती नाथीबाई था। आप दो वर्ष के थे तब आपकी माता का और पाँच वर्ष के थे तब आपके पिता का देहान्त हो गया। आप अपने मामा श्री मूलचन्दजी के पास रहने लगे । ११ वर्ष की उम्र में आप अपने मामा के साथ व्यापार में लग गये। दो वर्ष बाद मामाजी का भी देहान्त हो गया। इस प्रकार १३ वर्ष की उम्र में आपने माता-पिता व मामा तीनों को खो दिया। फलत: आपके मन में संसार के प्रति विरक्ति पैदा हो गयी। मुनि श्री मगनलालजी के पास आप दीक्षित हुए। १८ महीने बाद मुनि श्री मगनलालजी का भी स्वर्गवास हो गया। वि० सं० १९७७ में आचार्य श्री श्रीलालजी के स्वर्गवास के पश्चात् और वि०सं० १९९९ में मुनि श्री गणेशीलालजी के आचार्य बनने तक आपने संघ की बागडोर सम्भाली थी। इनके समय मुनि श्री घासीलालजी इस परम्परा से पृथक हुये थे। यद्यपि उनके साथ अधिक सन्त नहीं गये थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि आपने कन्या-विक्रय, वैवाहिक कुरीतियों, मृत्यु भोज, दहेज आदि कुरीतियों को अपने प्रवचन के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया। हाथी दाँत के चूड़े पहनने जैसी परम्पराओं के विरुद्ध जनमत तैयार करवाकर उसके निषेध हेत् पंचनामें तैयार करवाये। 'सद्धर्ममण्डनम्' और 'अनुकम्पा विचार' आपकी प्रमुख रचनायें हैं। आपकी कुछ रचनायें 'जवाहर किरणावली' के नाम से ३५ भागों में प्रकाशित हैं। वि०सं० २००० आषाढ़ शुक्लाष्टमी को संथारापूर्वक आपका स्वर्गारोहण हुआ। आचार्य श्री गणेशीलालजी __आचार्य श्री जवाहरलालजी के पश्चात् उनके पाट पर श्री गणेशीलालजी बैठे। श्री गणेशीलालजी का जन्म वि०सं० १९४७ में श्रावण कृष्णा तृतीया को उदयपुर में हुआ। आपके पिता का नाम श्री साहबलाल मारु और माता का नाम इन्द्राबाई था। जब आप १४ वर्ष के थे तब आपका विवाह हआ। विवाह के एक वर्ष पश्चात् आपकी माता और आपकी पत्नी दोनों का देहान्त हो गया। १५ वर्ष की अवस्था अर्थात् वि०सं० १९६२ मार्गशीर्ष एकम को आपने दीक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् कठोर तपस्या और सतत् ज्ञानार्जन में संलग्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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