SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 481
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६२ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास मुनि श्री जीवराजजी ____ आपका जन्म वि० सं० १९७१ में पूना जिलान्तर्गत नांदगाँव नाम ग्राम में हुआ। आपके पिता का नाम श्री प्रेमराजजी काँकलिया तथा माता का नाम श्रीमती चम्पाबाई था। बाल्यावस्था में ही आप चेचक रोग से ग्रसित हो गये, फलत: आपकी एक आँख नहीं रही। वि०सं० १९८४ में आचार्य श्री प्रेमराजजी का चातुर्मास चिंचवड़ में था। वहाँ श्रावक श्री प्रेमराजजी अपने पुत्र जीवराज के साथ दर्शनाथ पधारे। आचार्य श्री के प्ररेक प्रवचन सुनकर जीवराजजी और उनके पिताजी दोनों को वैराग्य उत्पन्न हो गया। इन दोनों पितापुत्र के साथ धनगरजवाले ग्राम के निवासी श्री प्रेमराजजी संचेती भी दीक्षा के लिए तैयार हो गये । इस प्रकार वि०सं० १९८४ मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन चिंचवड़ में आप तीनों को दीक्षा प्रदान की गयी। उस समय आचार्य श्री प्रेमराजजी की सेवा में उग्र तपस्वी मुनि श्री देवीलालजी एवं खद्दरधारी श्री गणेशमलजी उपस्थित थे। दीक्षोपरान्त श्री प्रेमराजजी काँकलिया का नाम 'मुनि पृथ्वीराजजी, उनके पुत्र श्री जीवराजजी का नाम वही रह गया और श्री प्रेमराजजी संचेती का नाम 'मुनि श्री खेमचन्दजी' रखा गया। ___मुनि श्री जीवराजजी स्वभाव से सरल, मिलनसार, आत्मगुणग्राही, प्रसन्नचेत्ता, आभ्यंतर तपी और चिन्तनशील थे । आपकी प्रवचन शैली ओजस्वी प्रेरणास्पद तथा गायनात्मक थी । गीतों और भजनों की आपकी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं । मुनि श्री गणेशमलजी. 'खादीवाले' आपका जन्म वि०सं० १९३६ कार्तिक शुक्ला षष्ठी दिन बुधवार की रात्रि के चतुर्थ प्रहर में राजस्थान के भावीविलाड़ा में हुआ। आपके पिता का नाम श्री पूनमचन्दजी और माता का नाम श्रीमती धुलीबाई था। वि०सं० १९७० मार्गशीर्ष सदि नवमी को नासिक में तपस्वी मुनि श्री प्रेमराजजी के शिष्यत्व में आपने दीक्षा ग्रहण की। आप संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, मराठी, कन्नड़, उर्दू अदि भाषाओं के अच्छे जानकार थे। जैन आगम, वेद, पुराण, रामायण, महाभारत आदि का आपको तलस्पर्शी ज्ञान था। अनेक थोकड़े आपको कंठस्थ थे। स्वभाव से आप सरल, गम्भीर और स्पष्ट वक्ता थे। आपने आजीवन एकान्तर तप का व्रत ले रखा था। खादी प्रचार, सम्यक्त्व प्रचार, धर्म प्रचार, गौशाला निर्माण आदि आपके रचनात्मक कार्य हैं। वि०सं० २०१८ माघ अमावस्या तदनुसार ४ फरवरी १९६२ दिन रविवार को जालना (महाराष्ट्र) में आपने महाप्रयाण किया । आप कर्नाटक गजकेसरी के नाम से जाने जाते हैं। कर्नाटक ही आपका मुख्य विहार क्षेत्र रहा। ऐसे तो आपके कई शिष्य हुये जिनमें प्रमुख के नाम इस प्रकार है- श्री खेमचन्दजी, श्री राजमलजी, श्री अमरचन्दजी, दक्षिणकेसरी खद्दरधारी श्री मिश्रीलालजी आदि। आप द्वारा किये गये चातुर्मासों की संक्षिप्त जानकारी निम्नवत है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy