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________________ आचार्य धर्मदासजी की मालव परम्परा ४१५ चातुर्मास आपने आगरा में किया। वि० सं० १९८१ का जयपुर चातुर्मास आपका अन्तिम चातुर्मास था । जयपुर चातुर्मास के पश्चात् आपने जोधपुर की ओर विहार किया। रास्ते में ही मार्गशीर्ष कृष्णा सप्तमी को रात्रि में ‘गाडूता' नामक ग्राम में आपका स्वर्गवास हो गया। आचार्य श्री चम्पालालजी आचार्य श्री माधवमुनिजी के पश्चात् संघ के आचार्य पद मुनि श्री चम्पालालजी विराजित हुए। आपका जन्म वि० सं० १९१५ में सोंधवाड़ (मालवा) के बड़ोद ग्राम के निवासी श्री अम्बालालजी के यहाँ हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती गंगाबाई था। वि०सं० १९४० में २५ वर्ष की आयु में आपने उज्जैन शाखा के पूज्य श्री रामरतनजी के सानिध्य में दीक्षा ग्रहण की। अपने संयमपर्याय में आपने जिनशासन की खूब ज्योति जलाई । वि०सं० १९७८ में आप संघ के उपाध्याय पद पर विराजित हुये। वि०सं० १९८१ माघ शुक्ला पंचमी को जयपुर में आप आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। किन्तु उसी वर्ष चैत्र कृष्णा एकादशी को प्रात:काल जयपुर से छ: किलोमीटर दूर अचानक आपका स्वर्गवास हो गया। आप मात्र डेढ़ महीना के आसपास आचार्य पद पर रहे। आपके दो शिष्य प्रमुख थे- श्री नानचन्दजी (कच्छी) और श्री रामचन्दजी। एक प्रशिष्य हुए- तपस्वी श्री भगवानदासजी (श्री रामचन्दजी के शिष्य)। मुनि श्री ताराचन्दजी पूज्य श्री चम्पालालजी के स्वर्गस्थ हो जाने के पश्चात् इस संघ में आचार्य परम्परा समाप्त हो गयी। आचार्य परम्परा समाप्त होने के पश्चात् संघ में जो बड़े होते थे वही संघ का संचालन करते थे। इसलिए उस समय स्थविर सन्त श्री ताराचन्दजी को प्रवर्तक पद प्रदान कर संघ की बागडोर उन्हें सौंपी गयी। मुनि श्री ताराचन्दजी का जन्म वि०सं० १९२३ फाल्गुन वदि पंचमी को रतलाम के रामगढ़ मोहल्ले में हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती नानूबाई व पिता का नाम श्री मोतीलाल था। वि०सं० १९४६ चैत्र शुक्ला एकादशी को २३ वर्ष की उम्र में आचार्य श्री मोखमसिंहजी की निश्रा में आपने दीक्षा ग्रहण की। सतरह वर्षों तक रतलाम में आपने अपने गुरुदेव की निस्पहभाव से सेवा की। गुरुदेव के दिवंगत होने के पश्चात आपने राजस्थान, मालवा, गुजरात, काठियावाड़, खानप्रदेश, कोंकण, हैदराबाद, मद्रास आदि प्रदेशों में विहार करते हुये जिनशासन के सिद्धान्तों को जन-जन तक पहुँचाया। आप वृद्धवय में भी विहार करते थे। वि०सं० २००५ में झाबुआ से आप धार की ओर विहार कर रहे थे कि मार्ग में आपकी तबियत बिगड़ गयी। उस समय मुनि श्री सूर्यमुनिजी जो इन्दौर की ओर जाते हुए बदनावर या वखतगढ़ में विश्राम कर रहे थे, को सूचना मिली कि प्रवर्तक श्री अवस्थ हैं । श्री सूर्यमुनिजी जिन्हें अपने पिताजी और अपने शिष्य श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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