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________________ ४१४ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास शल्योद्धार' आदि जैन ग्रन्थों के साथ-साथ 'मनुस्मृति', ‘याज्ञवल्क्यस्मृति', 'पुराण', 'उपनिषद्', 'सत्यार्थप्रकाश' आदि जैनेतर धर्मग्रन्थों व ज्योतिष ग्रन्थों का अध्ययन किया था। इनके अतिरिक्त 'सुश्रुत', 'चरक', 'वाग्भट', 'योग चिन्तामणी', 'भावप्रकाश', 'शार्ङ्गधर' आदि वैद्यक ग्रन्थों का यथासमय परिशीलन किया था। वि०सं० १९७६ में आपका चातुर्मास पालनपुर में था और श्री मगनमुनि का चातुर्मास भण्डावर में था। संवत्सरी के बाद श्री मगनमुनिजी का स्वास्थ्य बिगड़ गया। उनकी सेवा में एक मात्र बालमुनि श्री रत्नमुनिजी थे। औषधि आदि उपचार व्यर्थ सिद्ध हुए। मुनिश्री के स्वास्थ बिगड़ने की सूचना आप (श्री माधवमुनिजी) के पास पहुंची। आपने अपनी शिष्य मंडली के साथ पालनपुर से भण्डावर की ओर विहार किया। आप अजमेर के पास किसी गाँव में रात्रि विश्राम कर रहे थे कि अजमेर के किसी भाई ने यह सूचना दी कि वि०सं० १९७६ कार्तिक शुक्ला पंचमी को अर्द्धरात्रि में मगनमुनिजी का सवर्गवास हो गया। यहाँ यह उल्लेख करना अवश्यक है कि श्री माधवमनिजी के दोनों गुरु मुनि श्री मेघराजजी और मुनि श्री मगनमुनिजी का स्वर्गवास एक ही गाँव, एक ही मकान, एक ही महीना और एक ही तिथि को हुआ। स्वर्गवास के समय दोनों के साथ एक-एक बालमुनि ही थे। ३८ वर्ष संयमपर्याय की पालना करने के पश्चात् वि०सं० १९७८ वैशाख शुक्ला पंचमी को आप संघ के युवाचार्य बने। इसी समय मुनि श्री चम्पालालजी को . उपाध्याय पद प्रदान किया गया और चार साध्वीजी- महासती मेनकुँवरजी, महासती माणकुवँरजी, महासती महताबकुँवरजी और महासती टीबूजी को प्रवर्तिनी तथा दो मुनि- श्री सौभाग्यमलजी और श्री समरथमलजी को प्रवर्तक पद पर मनोनीत किया गया था। इन्दौर का चातुर्मास करने के पश्चात् युवाचार्य माधवमुनि देवास, उज्जैन, रतलाम, पेटलावद, थान्दला, भाबुआ, राजगढ़ आदि क्षेत्रों को स्पर्श करते हुए धार पधारे। वहाँ सूचना मिली कि आचार्य श्री नन्दलालजी का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। उग्र विहार कर वि०सं० १९७९ में आप रतलाम पधारे। वहीं वैशाख दशमी को आचार्य श्री नन्दलालजी ने चतर्विध संघ को साक्षी मान कर संथारा ग्रहण किया और दिन के लगभग ग्यारह बजे उनका स्वर्गवास हो गया। तभी मुनि श्री अमीऋषिजी ने आचार्य पद की चादर युवाचार्य श्री माधवमुनिजी को ओढ़ा दी। आपका वि०सं० १९७९ का चातुर्मास रतलाम में ही हुआ। इस चातुर्मास में उपाध्याय श्री चम्पकमुनिजी और तपस्वी श्री केशरीमलजी आपके साथ थे। तपस्वी श्री भगवानदासजी ने भी आपके सानिध्य में तपस्या की । इस चातुर्मास के बाद आपने मालवा छोड़ दिया। वि०सं० १९८० का १. श्री धर्मदासजी और उनकी मालव शिष्य परम्पराएँ, पृ०- १३६-१३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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