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आचार्य धर्मदासजी की मालव परम्परा
४०९ श्री शोभाचन्दजी के तीन शिष्य थे- श्री मोतीचन्दजी, श्री शम्भूरामजी और श्री कनिरामजी। मुनि श्री मोतीचन्दजी की दीक्षा वि०सं० १८५९, ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशी को बड़नगर में पूज्य श्री जोगरामजी के सानिध्य में हुई। आपकी कुछ रचनाएँ प्राप्त होती हैं ऐसा उल्लेख हैं, किन्तु नाम उपलब्ध नहीं है। वि०सं० १८७३ में उज्जैन के नयापुरा में आपने उज्जैन शाखा से मधुर सम्बन्धों का निर्माण किया था- ऐसा उल्लेख मिलता है। अपने गुरु मुनि श्री शोभाचन्दजी के स्वर्गवास स्वरूप जो वियोग प्राप्त हुआ उसका वर्णन आपने अपनी रचना में किया है। उस रचना को मुनि श्री उमेशमुनिजी ने 'मोती विलाप' नाम से सम्बोधित किया है।
आपके पाँच शिष्य हुए, जिनमें से तीन के नाम प्राप्त होते हैं- श्री जीतमलजी, श्री नन्दलालजी और श्री वृद्धिचन्दजी। श्री उमेशमुनिजी ने इन तीन शिष्यों की दीक्षा वि०सं० १८९० से वि०सं०१८९५ के बीच मानी है। साथ ही यह भी कहा है कि
आपके एक शिष्य का नाम दलीचन्दजी था, पर वे वि०सं०१८८४ के पूर्व आपके शिष्य हुये थे। पूज्य मोतीचन्दजी एक चमत्कारिक संत थे। आपके विषय में कई चामत्कारिक किंवदंतियाँ सुनी जाती हैं और ग्रन्थों में भी मिलती हैं, किन्तु विस्तारभय से यहाँ उल्लेख नहीं किया जा रहा है । आपके शिष्यों के पश्चात् इस परम्परा में अन्तिम मुनि के रूप में श्री छोटेलालजी का नाम आता है जो अकेले विचरण करते थे । वि० सं० १९७५ में उनका भी देहान्त हो गया। प्रतापगढ़ शाखा
इस शाखा का वर्तमान में कोई अस्तित्व नहीं है । इस शाखा के विषय में कोई विशेष जानकारी भी प्राप्त नहीं होती है। मनि श्री उमेशमनिजी का मानना है कि पूज्य श्री धर्मदासजी की मालवा परम्परा की इस शाखा में अन्तिम सन्त मुनि श्री लालचन्दजी थे जिनका स्वर्गवास वि० सं० २००६ में हो गया था। साथ ही उन्होंने यह भी सम्भावना व्यक्त की है कि इस शाखा का सम्बन्ध पूज्य श्री छोटे पृथ्वीचन्दजी से हो सकता है।
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