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________________ ४०८ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास आज्ञा प्राप्त कर आप दोनों ने वि० सं० १९५४ वैशाख सुदि चतुर्थी के दिन रतलाम में मुनि श्री गिरधारीलालजी के शिष्यत्व में दीक्षा ग्रहण की। वि०सं० १९५७ की मौन एकादशी को मुनि श्री गिरधारीलालजी का स्वर्गवास हो गया । आप अपने गुरुभ्राता मुनि श्री नन्दलालजी के दिशा निर्देशन में रहते हुये 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग', 'आवश्यकसूत्र', चार मूलशास्त्र, चार छेदशास्त्र और कई थोकड़े कण्ठस्थ कर लिये। आप उच्चकोटि के वक्ता तथा व्याख्यानी थे। वि० सं० १९६१ में रतलाम में रोग का प्रकोप हुआ। मुनि श्री नन्दलाल जी ने मुनि श्री मोखमसिंहजी से आज्ञा लेकर अपने अल्पवय के शिष्यों के साथ विहार कर दिया। विहार देखकर किसी श्रावक ने कहा कि साधु लोगों को भी मृत्यु से भय लगता है। यह सुनकर मनि श्री नन्दलालजी ने विहार स्थगित कर दिया। फलत: मुनि श्री वृद्धिचन्दजी रोग ग्रसित हो गये और वि०सं० १९६१ भाद्र कृष्णा तृतीया को आपका स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री रतनलालजी आप उज्जैन के रहनेवाले सद्गृहस्थ थे। आपकी पत्नी का नाम श्रीमती रतनबाई था। कम उम्र में ही आपकी पत्नी का देहान्त हो गया। उधर कुछ दिनों पश्चात् आपकी दुकान में भी आग लग गई। लोगों ने आग बुझाने की कोशिश की, किन्तु आपने दुकान को यह समझकर जलने दिया कि मोह का निमित्त स्वयं ही जल रहा है। इस प्रकार मोह माया को त्याग करके आपने वि०सं० १९८० के आस-पास मुनि श्री इन्द्रमलजी (मुनि श्री ज्ञानचन्दजी की परम्परा में) के पास दीक्षा ग्रहण की। वि०सं० २००२ के आस-पास अल्प बिमारी के पश्चात् शाजापुर में आपका स्वर्गवास हो गया। ऐसा कहा जाता है कि दीक्षा के पूर्व में आप पूज्य नन्दलालजी की परम्परा के सद्गृहस्थ थे। इसके अतिरिक्त आपके विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। . मालवा परम्परा की दो लुप्त शाखा सीतामहू-शाखा. इस शाखा के प्रवर्तक पूज्य श्री जसराजजी माने जाते हैं। आपके विषय में कोई विस्तृत जानकारी नहीं मिलती है। हाँ! इतनी जानकारी उपलब्ध होती है कि आप पूज्य श्री धर्मदासजी के लधु शिष्य थे। वृद्धावस्था में आपने सीतामह में स्थिरवास किये थे। आपकी परम्परा के सन्तों ने अपनी रचना में आपके नाम के पूर्व मुनि श्री रामचन्दजी का नाम लिखा है। इससे ऐसा कहा जा सकता है कि आप रामचन्दजी के शिष्य थे। आपके दो शिष्य हुए- श्री जोगराजजी और श्री पद्मजी। श्री जोगराजजी के शिष्य मुनि श्री शोभाचन्दजी थे। मुनि श्री शोभाचन्दजी ने चौदह वर्ष की अवस्था में दीक्षा ग्रहण की थी। पचास वर्ष तक संयमपर्याय की आराधना करने के पश्चात् वि०सं० १८९० कार्तिक शुक्ला अष्टमी को आपका समाधिपूर्वक स्वर्गवास हो गया । स्वर्गवास तिथि के आधार पर आपकी दीक्षा तिथि वि०सं० १८४० तथा जन्मतिथि वि०सं० १८२६ में होनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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