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________________ आचार्य धर्मदासजी की मालव परम्परा ३९७ कि यह तथ्य स्वतः अविश्वसनीय प्रतीत होगा। मुनि श्री का दूसरा कथन कि पूज्य श्री उदयचन्दजी के विषय में जानकारी नहीं मिलती है जिससे यह स्पष्ट होता है कि पूज्य श्री धर्मदासजी की पाट पर बैठने वाले द्वितीय पट्टधर श्री रामचन्द्रजी हुये जिनके नाम से आगे की परम्परा चली। श्री रामचन्द्रजी के पाट पर श्री माणकचन्दजी बैठे। श्री माणकचन्दजी के शिष्य मुनि श्री दल्लाजी हुये जिन्होंने श्री माणकचन्दजी से अलग होकर 'उज्जैन शाखा' का स्थापना की । यद्यपि आचार्य परम्परा की दृष्टि से देखा जाय तो रतलाम शाखा मालवा परम्परा की प्रमुख शाखा कही जा सकती है। आचार्य श्री रामचन्द्रजी की उज्जैन शाखा आचार्य रामचन्द्रजी आप उज्जैन शाखा के प्रथम आचार्य थे । आपके जन्म के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती है। ऐसी जनश्रुति है कि आप पूर्व में किसी गुसाईंजी के प्रमुख शिष्य थे। हाथी पर सवार होकर कहीं जा रहे थे कि आचार्य श्री धर्मदासजी की वाणी आपके कानों में पड़ी और आप प्रवचन सुनने के लिए आ गये । कोई आपको रामचन्द्र कहता था तो कोई रामैया। कई दिनों तक आप आचार्य श्री के प्रवचन सुनते रहे । अन्तत: आपको श्रेयमार्ग मिल गया और आप वि० सं० १७५४ में सत्ताइस वर्ष की उम्र में धार ( म०प्र०) नगर में आचार्य श्री धर्मदासजी के सान्निध्य में दीक्षित हुये । दीक्षा तिथि के आधार पर आपका जन्म वि० सं० १७२७ में माना जा सकता है। जैनेतर परम्परा (हिन्दू परम्परा) के होने के नाते आपको रामायण, महाभारत आदि का ज्ञान तो था ही, जैनागमों का भी आपने तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। वि० सं० १७७७-७८ के आप-पास जब मालवा की धरती पर मराठों का बोल बाला बढ़ता जा रहा था, मराठा मण्डल के प्रमुख बाजीराव पेशवा, शिन्दे, होलकर, गायकवाड़, पंवार आदि ने अपने राज्यों की नींव डाल दी थी, ऐसे समय में मुनि श्री रामचन्द्रजी का उज्जैन नगर में पधारना हुआ। मालवा पट्टावली में ऐसा उल्लेख है कि बाजीराव पेशवा की माताजी एक प्राचीन पोथी का अर्थ समझने के लिए उज्जैन आकर आपसे मिली थीं किन्तु प्रभुवीर पट्टावली में ऐसा उल्लेख नहीं है। इन दोनों मान्यताओं में कौन सत्य है यह तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु श्री सूर्यमुनिजी का यह मानना है कि पेशवा की माता मुनि श्री से मिलने गयीं थीं। आचार्य श्री द्वारा उस प्राचीन पोथी का विशद वर्णन करने पर पेशवा माता प्रसन्न हुईं और आचार्य श्री के निवेदन पर कारागार में बन्द कैदियों को आजाद करवाया। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि विरोधियों द्वारा राजा राणोजी सिंधिया के यहाँ शिकायत करने पर आपको दरबार में बुलाया गया था, जहाँ आपने राजा की शंकाओं का निवारण किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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