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________________ धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं ३८५ कृष्णा त्रयोदशी के दिन आचार्य श्री नृसिंहदासजी के शिष्यत्व में आपने दीक्षा ग्रहण की। दीक्षोपरान्त आपने १५, ३५ और ३७ दिन के तप के साथ एक बार पाँच महीने का दीर्घ तप भी किया था। आपके द्वारा किये गये तपों का वर्णन श्री ऋषभदासजी द्वारा लिखित 'देसी लावणी' में मिलता है। आपने ३६ वर्ष निर्मल संयमजीवन का पालन किया। वि०सं० १९०८ ज्येष्ठ शुक्ला अष्टमी को आपका स्वर्गवास हो गया। मुनि श्री ऋषभदासजी __ आपका जन्म कब, कहाँ, और किसके यहाँ हुआ ? इसका कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं होता है । जहाँ तक दीक्षा समय और दीक्षा गुरु का प्रश्न है तो इसकी भी स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है। श्री सौभाग्यमुनिजी 'कुमुद' ने दो पट्टावलियों के आधार पर आपको मुनि श्री सूरजमलजी का शिष्य माना है, किन्तु यह समुचित नहीं जान पड़ता, क्योंकि पट्टावलियों में पट्ट परम्परा दी रहती है न कि शिष्य परम्परा। हाँ! उनका यह कथन कि “मुनि श्री ऋषभदासजी पूज्य श्री नृसिंहदासजी के शिष्य हये हों तो भी तपस्वी श्री सूरजमलजी के प्रति वे शिष्यभाव से ही अनन्यवत् बरतते हों, ऐसा सुनिश्चित अनुमान होता है" - समुचित जान पड़ता है। आपका स्वर्गवास वि०सं० १९४३ में नाथद्वारा में हुआ, यह उल्लेख वि० सं० १९६८ में छपी एक पुस्तिका- 'पूज्य पद प्रदान करने का ओच्छव' में मिलता है। आप द्वारा रचित कृतियों के नाम इस प्रकार हैं रचना वर्ष स्थान, आवे जिनराज तोरण पर आवे वि०सं० १९१२ रतलाम अज्ञानी ने प्रभु न पिछाण्यो रे वि०सं० १९१२ 'खाचरौंद चतुर नर सतगुर ले सरणां वि०सं० १९१२ फूलवन्ती नी ढाल देव दिन की दोय ढाल सागर सेठ नी ढाल वि०सं० १९०४ रायपुर (मेवाड़) रूपकुंवर नुं चौढाल्यो वि० सं० १८९७ उदयपुर तपस्वी जी सूरजमलजी वि० सं० १९०८ - आपके प्रमुख शिष्यों में मुनि श्री बालकृष्णजी का नाम आता है। मुनि श्री बालकृष्णजी आपके विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। आपका जन्म, आपकी कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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