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________________ धर्मदासजी की पंजाब, मारवाड़ एवं मेवाड़ की परम्पराएं ३८३ __ अपने संयमजीवन में आप बहुत दिनों तक एकाकी विचरण करते रहे। आपके एकाकी विचरण करने के कारण का कोई स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। श्री सौभाग्यमनिजी 'कुमुद' का मानना है कि अन्य मुनिराजों का देहावसान हो गया हो या कोई दीक्षार्थी उपलब्ध न हुआ हो, अत: उन्हें एकाकी विहार करना पड़ा हो। आपका विहार क्षेत्र कोट, आमेट, सनवाड़, नाथद्वारा, उदयपुर आदि नगर रहे। मेवाड़ से बाहर विहार करने का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है और न ही आपने वहाँ कितने चातुर्मास किये आदि की जानकारी उपलब्ध होती है। हाँ! इतना स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है कि आपने अपने संयमजीवन के अन्तिम नौ वर्ष उदयपुर में स्थिरवास के रूप में बिताये । वि० सं० १८६१ में आपका स्वर्गवास हुआ। मुनिश्री नृसिंहदासजी आपके प्रमुख शिष्य थे। आचार्य श्री नृसिंहदासजी आचार्य श्री रोड़मलजी के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् उनके पाट पर मुनि श्री नृसिंहदासजी विराजित हुये । आपका जन्म भीलवाड़ा जिलान्तर्गत रामपुर ग्राम में हआ। आपकी जन्म-तिथि का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। आपकी माता का नाम श्रीमती गुमानबाई और पिता का नाम श्री गुलाबचन्दजी खत्री था। वि० सं० १८५२ मार्गशीर्ष कृष्णा नवमी के दिन लावा (सरदारगढ़) में आचार्य श्री रोड़मलजी के शिष्यत्व में आपने दीक्षा अंगीकार की । दीक्षा के समय आप गृहस्थावस्था में थे। मुनि श्री सौभाग्यमलजी 'कुमुद' ने दीक्षा के समय आपकी उम्र २०-२५ वर्ष माना है। इस आधार पर आपकी जन्म-तिथि वि०सं० १८२७ से १८३२ के बीच की होनी चाहिए। आपने अपने संयमजीवन में कई मासखमण, पन्द्रह, तेईस दिन का तप एवं एक कर्मचूर तप भी किया था। आपकी कई रचनायें उपलब्ध होती हैं जिनमें प्रथम रचना है- रोड़जी स्वामी २१ गुण, 'भगवान महावीर रा तवन, 'सुमतिनाथ स्तवन', 'श्रीमती सती' । वि०सं० १८८९ फाल्गुन कृष्णा अष्टमी को उदयपुर में आपका स्वर्गवास हो गया। आपने अपने संयमजीवन में कुल ३७ चौमासे किये- नाथद्वारा में- ९, सनवाड़ - १, पोटलां - १, गंगापुर-१ लावार (सरदारगढ़)-२, देवगढ़-१, रायपुर-२, कोटा-१ भीलवाड़ा-२, चित्तौड़-१ उदयपुर-१६ । आपके २२ शिष्य हुये जिनमें मुनि श्री मानमलजी और मुनि श्री सूरजमलजी आपके प्रमुख शिष्य थे। आचार्य श्री मानमलजी आपका जन्म वि० सं० १८६३ कार्तिक शुक्ला पंचमी को देवगढ़ मदारिया में १. मास खमण धुर जाणिये भवियण तेइस इकवीस जाण । कर्मचूर तप आर्यों भवियण पनरा तक तप आण । और तपस्या कीदी घणी रे भवियण कहतां नावे पार ।। मुनि श्री मानजी स्वामी विरजित गुरुगुण की ढाल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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