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________________ ३६० स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास जोधपुर के तिवरी नगर में हुआ। आपके पिताजी का नाम श्री जमनालालजी धाड़ीवाल तथा माँ का नाम श्रीमती तुलसीबाई था। १० वर्ष की अवस्था में वि०सं० १९८० ज्येष्ठ कृष्णा प्रतिपदा को मुनि श्री जोरावली के समीप आपकी दीक्षा हुई। मुनि श्री हजारीमलजी आपके शिक्षागुरु थे। आप जैन आगम साहित्य के अतिरिक्त ज्योतिष, गणित, व्याकरण आदि के भी गहन अध्येता थे। आपके गुरुदेव श्री हजारीमलजी का स्वर्गवास वि०सं० १९८५ में हो गया। आपको कुछ समय एकाकी विचरण करना पड़ा फिर भी आप अपनी संयम साधना के प्रति सजग रहे। आपकी योग्यता को देखकर ही आपको भूधरजी की परम्परा में वि०सं० २००४ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया गया। वि०सं० २००९ में जब सभी सम्प्रदाय श्रमण संघ में विलीन हुई तो आपने अपने आचार्य पद का त्याग कर दिया। वि०सं० २००९ में सादड़ी सम्मेलन में आपको मंत्री पद से विभूषित किया गया और उसके बाद वि०सं० २०२५ में आप प्रवर्तक पद पर आसीन हुए। तत्पश्चात् वि० सं० २०३६ श्रावण सुदि प्रतिपदा को हैदराबाद में श्रमण संघ के द्वितीय आचार्य आनन्दऋषिजी के द्वारा युवाचार्य पद पर प्रतिष्ठित किये गये। वि०सं० २०४० तदनुसार ई० सन् १९८३ में २६ नवम्बर को आपका स्वर्गवास हो गया। आपकी साहित्य सेवा अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण है। विशेष रूप से आपने मुनि श्री जोरावरजी की स्मृति में ३२ आगामों को हिन्दी अनुवाद सहित सम्पादित करके प्रकाशित करवाया। सम्भवतः अभी तक स्थानकवासी परम्परा में जो आगम साहित्य प्रकाशित हुये हैं उनमें आपके सम्पादकत्व में प्रकाशित आगम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कहे जा सकते हैं। आगम साहित्य के प्रकाशन के अतिरिक्त भी आपके अनेक ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं, जिनमें निम्न मुख्य हैं- 'अन्तर की ओर', 'साधना के सूत्र', 'पर्युषण पर्व-प्रवचन', 'अनेकान्त दर्शन', 'जैन कर्म-सिद्धान्त', 'जैन तत्त्वदर्शन', 'जैन संस्कृति:एक विश्लेषण', 'गृहस्थधर्म', 'अपरिग्रह दर्शन', 'अहिंसा दर्शन', 'तप:एक विश्लेषण', 'आध्यात्मिक विकास की भूमिका: गुण स्थान - एक विवेचन', 'जैन कथामाला '(५१ भागों में), 'पिंजरे का पंछी', 'अहिंसा की विजय', 'तलाश', 'छाया आन का बलिदान', 'मधुकर काव्य कल्लोलिनी' (संस्कृत), 'ज्योर्तिधर जय' (संस्कृत), "जीओ तो ऐसे जीओ (ललित निबन्ध संग्रह), 'साधु वन्दना', 'जयवाणी' (राजस्थानी), 'रायरत्नावली' (भाग १-२), 'भगवान् महावीर का दिव्य जीवन', 'जैन धर्म : एक परिचय', 'भगवान् महावीर के शिक्षापद', 'सन्मतिवाणी', 'जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ' आदि। वर्तमान में आपके दोनों शिष्य श्रमण संघ में हैं, जिनमें श्री विनयमुनिजी 'भीम' उपप्रवर्तक पद पर प्रतिष्ठित हैं। वर्तमान में यह परम्परा श्रमण संघ में है। आप द्वारा किये गये चातुर्मासों का विवरण निम्न है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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