SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 352
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३४ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास किया। श्री सन्यजी स्वामी के पश्चात् श्री हरजीवनजी पदासीन हुये। श्री हरजीवनजी के पट्ट पर श्री मगनलालजी पटासीन हुये। श्री मगनलालजी के पश्चात् श्री लक्ष्मीचन्दजी स्वामी पट्ट पर आसीन हुये। श्री लक्ष्मीचन्दजी के पश्चात् श्री कर्मचन्दजी पट्टधर हुये। वर्तमान में मुनिजी बलभद्र स्वामी संघ का नेतृत्व कर रहें हैं। वर्तमान में आपके साथ एकमात्र श्री दर्शनमुनिजी हैं। इस संघ में वर्तमान में केवल दो सन्तजी ही हैं। कच्छ आठ कोटि मोटी पक्ष व नानी नक्ष आचार्य श्री मूलचन्दजी के छठे शिष्य श्री इन्द्रचन्दजी स्वामी अपने शिष्यों के साथ वि० सं० १७७२ में कच्छ पधारें। इनके कच्छ पधारने से पूर्व भी वहाँ लोकागच्छ के यतियों का विचरण था। वि०सं० १७८६ में श्री सोमचन्द्रजी ने श्री इन्द्रचन्दजी स्वामी के श्री चरणों में आर्हती दीक्षा ग्रहण की। श्री सोमचन्दजी स्वामी के दीक्षित होने के कुछ वर्ष उपरान्त श्रीकृष्णजी जो बलदीया ग्राम के रहनेवाले थे, ने अपनी माता श्रीमती मृगावतीबाई के साथ भुज में वि०सं० १८१६ कार्तिक कृष्णा एकादशी को दीक्षा ग्रहण की। इसी प्रकार वि० सं० १८३२ में श्री देवकरणजी और वि०सं० १८४२ में डाह्याजी, थोमणजी, मांडलजी आदि ने दीक्षा ग्रहण की। उस समय कच्छ में बाहर से आये हुये साधुओं को 'परदेशी साधु' कहकर सम्बोधित किया जाता था। जो कच्छ के उन्हें 'कच्छी साधू' के नाम से सम्बोधित किया जाता था। किन्त लीम्बड़ी सम्प्रदाय का गादी लीम्बड़ी में होने से इन्द्रचन्दजी स्वामी व उनके शिष्यों को कोई परेशानी नहीं उठानी पड़ी, क्योंकि दोनो सम्प्रदायो का मूल एक ही है। अत: दोनों सम्प्रदायों के आहार पानी एक साथ ही होते थे। कच्छ में 'देशी साधु' के नाम से जाने जाने वाले श्री करसन स्वामी आदि साधुओं ने आठकोटि दरियापुरी सम्प्रदाय के संस्थापक पूज्य श्री धर्मसिंहजी विरचित 'आवश्यकसूत्र' की प्रति पढ़ी और अपनी छः कोटि में मान्य परम्परागत मान्यता को छोड़कर आठ कोटि मान्य सामायिक और पौषध आदि मतों का प्रतिपादन किया। इस आचार परिवर्तन के सन्दर्भ में करसनजी सम्प्रदाय के श्री देवजी और श्री अजरामर सम्प्रदाय के श्री देवराजजी स्वामी के बीच वि०सं० १८५६ में मांडली शहर में चर्चा हुई । फलत: वि०सं० १८५६ श्रावण कृष्णा नवमी बुधवार से श्रावकों के बीच अलग-अलग प्रतिक्रमण शुरु हो गये। इस प्रकार वि०सं० १८५६ श्रावण कृष्णा नवमी के दिन 'कच्छ आठकोटि सम्प्रदाय' अस्तित्व में आया। लगभग ७९ वर्षों उपरान्त अर्थात् विक्रम संवत् १९३५ में आठकोटि भी दो वर्गों में विभाजित हो गया जिसमें श्री देवकरणजी स्वामी का परिवार 'आठकोटि मोटी पक्ष' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy