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________________ ३३२ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास पद पर आसीन हुये। श्री कानजी स्वामी के उत्तराधिकारी के रूप में श्री रामरखाजी स्वामी संधाधिपति बने। श्री रामरखाजी स्वामी के पश्चात् उनकी पाट पर श्री चुन्नीलालजी स्वामी आसीन हुये। श्री चुन्नीलालजी स्वामी के पद पर श्री उम्मेदचंदजी स्वामी ने संघ की बागडोर संभाली। श्री उम्मेदचंदजी स्वामी के पश्चात् श्री मोहनलालजी उनके पट्ट पर विराजित हुये। श्री मोहनलालजी स्वामी के पश्चात् श्री चम्पकमुनिजी पदासीन हुये। चम्पकमुनिजी के पश्चात् वर्तमान में श्री सरदारमुनिजी संघ के प्रमुख है। वर्तमान में इस संघ में कुल ११ सन्त और १६ सतियांजी हैं। सन्तों के नाम इस प्रकार है मुनि श्री सरदारमुनिजी, (संघप्रमुख), मुनि श्री पारसमुनिजी, मुनि श्री तरुणमुनिजी, मुनि श्री धर्मेन्द्रमुनिजी, मुनि श्री आदित्यमुनिजी, मुनि श्री पंकजमुनिजी, मुनि श्री मुकेशमुनिजी, मुनि श्री शान्तिमुनिजी, मुनि श्री उदयमुनिजी, मुनि श्री गौरवमुनिजी, एवं मुनि श्री हितेशमुनिजी। आगे सारणी बद्ध रूप में पट्ट परम्परा एवं शिष्य परम्परा दी जा रही है जो खम्भात सम्प्रदाय के सन्त मुनि श्री गिरधरलालजी स्वामी के निर्देशन में श्री प्रेमचंद अभयचंदजी मारफतिया (सूरतवाले) द्वारा वि०सं० १९५९ में निर्मित 'स्थानकवासी जैन मुनिकल्पद्रम' पर आधारित है। आचार्य हस्तीमलजी द्वारा लिखित पट्टावली और इस कल्पद्रुम में उद्धृत पट्टावली में थोड़ा अन्तर है। आचार्य श्री ने श्री वनाजो के पश्चात् श्री पुरुषोत्तमजी, पुरुषोत्तमजी के पश्चात् बनारसीजी और बनारसीजी के पश्चात् कहानजी स्वामी की पट्ट परम्परा को माना है। जबकि 'कल्पद्रुम' में वर्णित पट्ट-परम्परा के अनुसार दो श्री वनाजी स्वामी का उल्लेख है। इससे ऐसा लगता है कि बड़े वनाजी स्वामी जो गुरु रहे होंगे और एक छोटे वनाजी जो शिष्य रहे होंगे। इसमें श्री वनाजी स्वामी (छोटे) के पश्चात् ही श्री कहानजी स्वामी को पट्टधर माना गया है। 'कल्पद्रुम' की पट्ट परम्परा और शिष्य परम्परा श्री मोहनलालजी तक का वर्णन है, जो आचार्य हस्तीमलजी द्वारा लिखित पट्ट परम्परा से मिलती है, किन्तु कालक्रम ज्ञात न होने से यह कहना कठिन है कि 'कल्पद्रुम' में मान्य श्री मोहनजी स्वामी और आचार्य हस्तीमलजी द्वारा मान्य श्री मोहनजी स्वामी दोनों एक ही हैं। श्री मोहनजी स्वामी के पश्चात् इस परम्परा में श्री चम्पकमुनिजी का नाम आता है। वर्तमान में श्री सरदारमुनिजी एवं उनके शिष्य हैं जिनका वर्णन पूर्व में किया जा चुका है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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