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________________ ३२९ धर्मदासजी की परम्परा में उद्भूत गुजरात के सम्प्रदाय डुंगरसीजी स्वामी और उनका गोंडल सम्प्रदाय पूज्य श्री मूलचंदजी स्वामी के द्वितीय शिष्य श्री पंचायणजी (लीम्बड़ी संघ के आद्य प्रवर्तक) के प्रशिष्य और श्री रतनसी स्वामी के शिष्य श्री डुंगरसीजी स्वामी ने वि० सं० १८४५ में गोंडल सम्प्रदाय की स्थापना की। इस परम्परा के आद्य प्रवर्तक श्री डूंगरसी स्वामी हैं। आचार्य श्री हस्तीमलजी के अनुसार इनकी पट्ट-परम्परा कुछ इस प्रकार है- पूज्य श्री डुंगरसी स्वामी के पाट पर श्री मेधराजजी स्वामी विराजित हुये। श्री मेधराजजी स्वामी के पाट पर श्री डाह्याजी स्वामी अधिष्ठित हुये। श्री डाह्याजी स्वामी के पश्चात् श्री नैनसीजी स्वामी संघ के पाट पर सुशोभित हुये। श्री नैनसीजी स्वामी के पाट पर श्री अम्बालालजी स्वामी आसीन हुये। श्री अम्बालालजी स्वामी के उपरान्त श्री नैनसीजी (छोटे) ने संघ की बागडोर संभाली। श्री नैनसीजी स्वामी के पश्चात् श्री देवजी स्वामी उनके पाट पर विराजित हुये। श्री देवजी स्वामी के पश्चात् श्री जयचन्दजी स्वामी ने पट्ट परम्परा को कायम रखा। श्री जयचन्दजी स्वामी के पश्चात् श्री प्राणलालजी श्री संघ के पट्ट पर पदासीन हये। श्री प्राणलालजी स्वामी के पश्चात् श्री रतिलालजी उनके उत्तराधिकारी हुये । आगे सारणी बद्ध रूप में पट्ट-परम्परा एवं शिष्य परम्परा दी जा रही है। यह पट्ट परम्परा एवं शिष्य परम्परा आचार्य श्री हस्तीमलजी द्वारा लिखित पुस्तक 'जैन आचार्य चरितावली', 'स्थानकवासी जैन मुनि कल्पद्रुम' और वाराणसी के जैन भवन से प्राप्त 'श्री गोंडल स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय मुनि कल्पद्रुम' पर आधारित है। जैन मुनि कल्पद्रुम श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ, घाटकोपर (मुम्बई) द्वारा प्रकाशित है। गोंडल (मोटा पक्ष)सम्प्रदाय की पट्ट-परम्परा मुनि श्री पंचायणजी स्वामी आपके विषय में लीम्बड़ी समुदाय की परम्परा में पूर्व में ही चर्चा की जा चुकी हैं। मुनि श्री रत्नसिंहजी स्वामी आपके गुरु का नाम पंचायणजी स्वामी था। आपके शिष्य निद्रा विजेता डूंगरसिंहजी स्वामी ने वि० सं० १८४५ में लीम्बडी से विहार करके गोंडल पधारे और गोंडल सम्प्रदाय को स्थापना की। मुनि श्री रवजी स्वामी ___ आप वि०सं० १८३८ में दीक्षित हुए थे। इसके अतिरिक्त अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। १. इस कल्पद्रुम में कोई ऐसी तिथि अंकित नहीं है जिससे इसका निर्माण काल जाना जा सके। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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