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________________ ३२२ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास के ज्योतिर्धर आचार्य' में लिखा है- पत्नी के निधन के पश्चात् आपका दूसरा पाणिग्रहण संस्कार होने की तैयारी हो रही थी तभी आपके मन में यह विचार आया कि जीवन अस्थिर है। जिस प्रकार पत्नी मुझे लघुवय में छोड़कर चल दी उसी तरह मैं भी तो इस संसार को छोड़कर चला जाऊँगा। क्या मानव का जीवन कूकर और शूकर की तरह विषय-वासना के दलदल में फँसने के लिए है? इस जीवन का लक्ष्य महान है तो मुझे उस महानता की ओर बढ़ना है। अत: आपने आचार्य गुलाबचन्दजी के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण की आपकी दीक्षा वि०सं० १९५३ ज्येष्ठ सुदि तृतीया को भोरारा में हुई। इस प्रकार आप रायसिंह (राजसिंह) से मुनि रत्नचन्द्र हो गये। आप विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। दीक्षोपरान्त आपने आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन किया। आप द्वारा रचित साहित्य निम्न हैं _ 'श्री अजरामर स्तोत्रनुं जीवन चरित्र' (रचना वर्ष वि० सं० १९६९), 'कर्तव्य कौमुदी', भाग-१ (रचना वर्ष वि० सं० वि० सं-१९७०), 'भावनाशतक' (रचना वर्ष वि० सं-१९७२), 'रत्नगद्यमलिका' (रचना वर्ष वि० सं-१९७३), 'अर्धभागधी कोष', भाग-१ (रचना वर्ष वि०सं-१९७९) प्रस्तार रत्नावली' (गणित सम्बन्धी ग्रन्थ, रचना वर्ष वि०सं-१९८१), 'कर्तव्य कौमुदी', भाग-२ (रचना वर्ष वि० सं-१९८१), 'जैन सिद्धान्त कौमुदी' (रचना वर्ष वि०सं-१९८२), 'जैनागमशब्द संग्रह' (रचना वर्ष वि० सं-१९८३), 'अर्द्धमागधी शब्द रूपावली' (रचना वर्ष वि० सं-१९८४), 'अर्द्धमागधी धातु रूपावली' (रचना वर्ष वि० सं-१९८४), 'अर्धमागधीकोष', भाग-२ (रचना वर्ष वि० सं-१९८५), 'अर्द्धमागधीकोष', भाग-३ (रचना वर्ष वि०सं-१९८६), 'अर्द्धमागधीकोष', भाग-४ (रचना वर्ष वि० सं-१९८७), 'अर्द्धमागधीकोष', भाग-५ (रचना वर्ष वि०सं-१९८९), 'जैनसिद्धान्त कौमुदी' (सटीक, रचना वर्ष वि०सं-१९८९) और रेवतीदान समालोचना' (निबन्ध, रचना वर्ष वि० सं-१९९०)। आपकी प्रतिमा एवं जिनशासन सेवा से प्रभावित होकर आपको 'भारतरत्न भूषण' के अलंकरण से विभूषित किया गया। आपकी प्रेरणा से वि० सं० १९९३ तदनुसार ई० सन् १९३७ में वाराणसी में स्थापित श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान आज भी जैनविद्या के उच्चतम अध्ययन और शोध का अनुपम केन्द्र है। उसका ग्रन्थागार आपके नाम पर है। वि०सं० १९९६ वैशाख वदि षष्ठी दिन शुक्रवार को आपका स्वर्गगमन हुआ। आपने कुल ४४ वर्ष संयमपर्याय जीवन व्यतीत किये। आप द्वारा किये गये चातुर्मासों की सूची इस प्रकार हैवि० सं० स्थान वि० सं० स्थान १९५३ मांडवी १९५८ भोरारा १९५४ अंजार १९५९ अंजार १९५५ जामनगर १९६० खेडोई १९५६ जूनागढ़ १९६१ गुंदाला १९५७ १९६२ थानगढ़ जेतपुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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