SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 241
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा २२३ में लुधियाना में आपका स्वर्गवास हो गया। आपके एक शिष्य थे- श्री मेलारामजी। मेलारामजी का जन्म पंजाब के कपूरथला में हुआ। वि०सं० १९५९ माघ शुक्ला एकादशी को मुनि श्री जवाहरलालजी के हाथों आपकी दीक्षा हुई। वि० सं० २००३ में मूनक में आपका स्वर्गवास हुआ। श्री. फकीरचन्दजी आपका जन्म वि०सं० १९४६ के फाल्गुन मास में हरियाणा के दनौदाकलाँ निवासी श्री पीरुमल जैन के यहाँ हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती मामनी देवी था। कैथलशहर में वि०सं० १९७४ मार्गशीर्ष शुक्ला नवमी को आपकी दीक्षा हुई । दीक्षित होने के पश्चात् आपने तपश्चर्या प्रारम्भ किया। २१ दिन का दीर्घ उपवास, ११ दिन की औपवासिक लड़ी भरना आपके तपों में उल्लेखनीय है। चातुर्मास काल में आप कभी दो-दो दिन तो कभी एक-एक दिन के अन्तर से आहार ग्रहण करते थे। गर्मी के दिन में दोपहर के १२ बजे से शाम के ४ बजे तक आसन लगाकर धूप की आतापना लेना तथा जाड़े में बिना चादर के अकल्प खड़े होकर तप करना आपको प्रिय था। यही कारण है कि आपको लोग तपस्वीराज के नाम से सम्बोधित करते थे। तप के साथ-साथ अभिग्रह भी किया करते थे। वि० सं० १९८६ में आपने खाद्य और पेय वस्तुओं में से दस को ग्रहण कर शेष का आजीवन परित्याग कर दिया। दस वस्तुयें थीं - रोटी, जल, छाछ, दाल, कढ़ी, खिचड़ी, दलिया, दही, घी और औषध। ३३ वर्ष तक यह व्रत चला । वि०सं० २०१९ पौष कृष्णा सप्तमी को टोहाना (हरियाणा) में आप समाधिमरण को प्राप्त हुये । आपके शिष्य श्री सहजमुनिजी हुए। मुनि श्री सहजमुनिजी आपका जन्म पंजाब के लेहलकलाँ में हुआ। आपके पिताजी का नाम श्री बाबूरामजी था। वि०सं० २०१० कार्तिक शुक्ला दशमी का मूनक में आपकी दीक्षा हुई। प्रतिवर्ष चातुर्मास में २१,३१,३७,५३,५४,५७,६२,९३ दिनों तक की तपस्यायें आपने की हैं । आचार्य श्री आनन्दऋषिजी ने आपको जैनरत्न की उपाधि से गौरवान्वित किया है। श्री सुशीलमुनिजी आपके शिष्य हैं। मुनि श्री गंगारामजी और मुनि श्री. रतिरामजी आप मुनिद्वय के जीवन के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। यह स्पष्ट नहीं है कि आप किस सम्प्रदाय के सन्त थे और आपके आचार्य कौन थे। जैसा कि श्री सुभद्रमुनिजी ने अपनी पुस्तक 'महाप्राण मायारामजी' में संभावना व्यक्त की है कि आप पंजाब सम्प्रदाय के थे। किन्तु किस कारण से आप दोनों संघ से बाहर हो गये ज्ञात नहीं है। मुनि श्री मायारामजी आप मुनिद्वय को अपना आद्य गुरु मानते हैं। मुनि श्री मायारामजी ने आपके पास दो वर्ष तक रहकर शास्त्रों का अध्ययन किया था। मुनि श्री गंगारामजी का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy