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________________ आचार्य लवजीऋषि और उनकी परम्परा, १९७ ली? कब आचार्य पद ग्रहण किया? कब स्वर्गवास हुआ? इसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है । आपके सात शिष्य हुए जिनके नाम इस प्रकार हैं- मुनि श्री कान्हजी, मुनि श्री प्रेमचन्द्रजी, मुनि श्री वृन्दावनलाल जी, मुनि श्री लालमणिजी, मुनि श्री तपस्वीलालजी, श्री मनसारामजी और मुनि श्री हरसहायजी । आचार्य श्री वृन्दावनलालजी. आचार्य श्री हरिदासजी के स्वर्गवास के पश्चात् मुनि श्री वृन्दावनलालजी आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। आपके विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। आचार्य श्री भवानीदासजी/भगवानदासजी आचार्य श्री वृन्दावनलालजी के स्वर्गवास के पश्चात् श्री भवानीदासजी आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। कहीं-कहीं भगवानदासजी का भी उल्लेख मिलता है। आपके विषय में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती हैं । आचार्य श्री मलूकचन्दजी आचार्य श्री भवानीदासजी के स्वर्गवास के पश्चात् श्री मलूकचन्दजी आचार्य पद पर आसीन हुए । आप महान् तपस्वी थे। आगों का भी आपको तलस्पर्शी ज्ञान था। ऐसा उल्लेख मिलता है कि वि० सं० १८१५ को आप अपने शिष्यों के साथ सुनामनगर पहुँचे जहाँ यतियों का बाहुल्य था । फलतः ग्रामवासियों ने आपको गाँव में जगह नहीं दी। आप गाँव के बाहर तालाब किनारे छतरियों में ठहर गये तथा अपने शिष्यों को पढ़ाने लगे। इस तरह आठ दिन बीत गये । आपकी शान्त भावना तथा तप की तेजस्विता को देख कर एक-दो लोग दर्शनार्थ आने लगे। लोगों ने आहार (गोचरी) पानी के लिए विनती की। तब आचार्य श्री ने कहा- जो व्यक्ति सविधि सामायिक एवं सन्तदर्शन का नियम ग्रहण करेगा हम उसी के यहाँ आहार-पानी ग्रहण करेंगे। लोगों ने सविधि नियम ग्रहण कर लिये। इस प्रकार आपने अनेक लोगों को जिनशासन का उपासक बनाया । आपका संयमपर्याय वि०सं० १८३३ तक रहा। आचार्य श्री महासिंहजी. आचार्य श्री मलूकचन्दजी के स्वर्गस्थ होने के पश्चात् मुनि श्री महासिंहजी आचार्य पद पर विराजित हुए । मुनि श्री गोकुलचन्दजी, मुनि श्री कुशलचन्दजी, मुनि श्री अमोलकचन्द्रजी, मुनि श्री नागरमलजी आदि आपके प्रमुख शिष्य थे। वि०सं० १८६१ आश्विन पूर्णिमा को सुनामनगर में आपने संथारा ग्रहण किया और उसी वर्ष कार्तिक अमावस्या को आप समाधिमरण को प्राप्त हुये । आपके विषय में इससे अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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