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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
श्री थोभणऋषिजी और श्री भानुऋषिजी के साथ खम्भात के उद्यान में अरिहन्त और सिद्ध भगवान् को नमस्कार करके, श्री संघ को साक्षी मानकर पंचमहाव्रत का उच्चारण करते हुए आपने शास्त्रानुसार शुद्ध संयम को धारण किया । गुजरात - कठियावाड़, मारवाड़, मालवा, मेवाड़ आदि आपके विहार क्षेत्र रहे । एक प्राचीन पटावली के अनुसार जो वर्तमान में मुनि श्री सुमनमुनिजी के पास है, के अनुसार लवजीऋषिजी के छः शिष्य थे - श्री सोमऋषिजी, श्री कानऋषिजी, श्री ताराचन्दजी, श्री जोगराजजी, श्री बलोजी और श्री हरिदासजी। सोमऋषिजी का जन्म अहमदाबाद के कालूपुरा में हुआ । वि० सं० १७१० में आचार्य श्री लवजीऋषिजी के सान्निध्य में आप दीक्षित हुए। वि०सं० १७२२ में आप संघ के आचार्य बने । वि० सं० १७३७ में आपका स्वर्गवास हुआ। एक बार विहार करते हुए आप बुरहानपुर पधारे बुरहानपुर में यतियों का वर्चस्व था । ईर्ष्यावश किसी ने लड्डू में विष मिलाकर पारणे में दे दिया, फलतः आपका स्वर्गवास हो गया । आपके स्वर्गवास के पश्चात् आपकी पाट पर मुनि श्री हरिदासजी बैठे।
आचार्य श्री हरिदासजी की पंजाब परम्परा आचार्य श्री हरिदासजी
आचार्य सोमजीऋषि के पाट पर मुनि श्री हरिदासजी विराजित हुए । स्थानकवासी जैन परम्परा की पंजाब शाखा के आप आद्यपुरुष माने जाते हैं । आपका जन्म पंजाब में हुआ और पंजाब में ही आपकी दीक्षा भी हुई। पूर्व में आप लोकागच्छ में यति थे। यति रूप में ही आपने प्राकृत, संस्कृत, उर्दू, फारसी आदि भाषाओं के साथ-साथ आगम साहित्य का भी गहन अध्ययन किया था। गहन अध्ययन के परिणामस्वरूप आपने साधु जीवन के मर्म को समझा और सच्चे गुरु की खोज में निकल पड़े । घूमतेघूमते आप अहमदाबाद पहुँचे, वहाँ आपकी मुलाकात लवजीऋषि और सोमजीऋषि से हुई। वहीं पर आपने लवजीऋषि के शिष्यत्व को स्वीकार किया। गुरु की आज्ञा से आप जिनशासन की प्रभावना एवं प्रचार-प्रसार हेतु वि०सं० १७३० के आस-पास पुन: पंजाब पधारे थे। सोमजीऋषि के स्वर्गवास के पश्चात् पंजाब श्रीसंघ ने आपको आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया । आपकी जन्म तिथि क्या है ? कब दीक्षा
१. प्रथम साध लवजी भए, दुति सोम गुरु भाय जग तारण जग में प्रगट, ता सिष नाम सुणाय ॥ १ ॥ क्रिया- दया- संजम सरस, धन उत्तम अणगार । लवजी के सिष जाणिए, हरिदास अणगार ॥ २ । लवजी सिष सोमजी, कानजी ताराचन्द जोगराज बालोजी, हरिदास + साधना का महायात्री : प्रज्ञामहर्षि श्री सुमनमुनि' पुस्तक पर आधारित
अमंद ॥३॥
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