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________________ आचार्य जीवराजजी और उनकी परम्परा आचार्य स्वामीदासजी एवं उनकी परम्परा क्रियोद्धारक आचार्य जीवराजजी स्वामी के शिष्य श्री लालचन्दजी हुए। श्री लालचन्दजी के शिष्य दीपचन्दजी हुए। श्री दीपचन्दजी के दो शिष्य हुए- मुनि श्री माणकचन्दजी और मुनि श्री स्वामीदासजी। मुनि श्री माणकचन्दजी की परम्परा आगे चलकर नानक सम्प्रदाय के रूप में विकसित हुई। मुनि श्री स्वामीदासजी की परम्परा अलग चली। मुनि श्री स्वामीदासजी मुनि श्री दीपचन्दजी से कब और किन कारणों से अलग हुये, इसकी जानकारी उपलबध नहीं होती है। आचार्य श्री स्वामीदासजी १८५ आपका जन्म सोजत में हुआ। आपकी माता का नाम श्रीमती फूलाबाई तथा पिता का नाम श्री पोचाजी रातड़िया मूथा था। आपके विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। आपके विषय में जनश्रुति है कि आपके विवाह की तैयारी हो रही थी। विवाह के पूर्व आप अपने सगे-सम्बन्धियों के यहाँ भोजन करने के लिए जाते समय मार्ग में जैनाचार्य श्री लालचन्दजी के शिष्य मुनि श्री दीपचन्दजी के प्रवचन सुनने के लिए बैठ गये । ज्ञानगर्भित प्रवचन को सुनकर आपका अन्तःकरण प्रबुद्ध हो गया और संसार के काम-भोगों के प्रति मन में विरक्ति हो गयी। मुनि श्री दीपचन्दजी को अपनी भावना से अवगत कराते हुये आपने कहा कि मैं आप श्री के चरणों में आर्हती दीक्षा ग्रहण करूँगा। आपकी भावना को जानकर आपके माता-पिता ने बहुत समझाया कि दीक्षा मत लो, किन्तु आप अपने निर्णय पर अडिग रहे। परिणामतः वि०सं० १८८७ माघ शुक्ला चतुर्थी को मुनि श्री दीपचन्दजी के पास आपने और आपकी होने वाली पत्नी दोनों ने दीक्षा ग्रहण कर ली। आप विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। आप द्वारा प्रतिलिपि की हुई आगमों की प्रतियाँ ब्यावर, किशनगढ़, केकड़ी, जयपुर आदि भण्डारों में उपलब्ध हैं । आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी के अनुसार आप द्वारा लिखित आगम बतीसी भण्डारों में उपलब्ध है। ६० वर्ष की संयमपर्याय के पश्चात् अट्ठाइस दिन के संथारे के साथ आप स्वर्गस्थ हुये । आचार्य श्री स्वामीदासजी के पश्चात् उनके पाट पर उनके प्रमुख शिष्य मुनि श्री उग्रसेनजी विराजमान हुए। मुनि श्री उग्रसेनजी के पश्चात् मुनि श्री घासीरामजी, मुनि श्री घासीरामजी के पश्चात् मुनि श्री कनीरामजी, मुनि श्री कनीरामजी के पश्चात् मुनि श्री ऋषिरामजी, मुनि श्री ऋषिरामजी के पश्चात् मुनि श्री रंगलालजी संघ के आचार्य पद पर विराजित हुए। मुनि श्री रंगलालजी स्वामीदास सम्प्रदाय के जाने माने साधुरत्न थे । आपकी संयम-साधना, जप-तप, त्याग और वैराग्य की आराधना विलक्षण थी । क्षमा और सहिष्णुता आपके जीवन की पर्याय थी। ऐसी जनश्रुति है कि भयंकर से भयंकर परीषह या संकट के आने पर भी आप डवॉडोल नहीं होते थे। आचार्य श्री रंगलालजी के पश्चात् मुनि श्री छगनलालजी संघ के प्रमुख बने। कहीं-कहीं मुनि श्री छगनलालजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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