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लोकागच्छ और उसकी परम्परा श्री. रूपजी
सरवाजी के पश्चात् लोकागच्छ के पट्टधर रूपजी हुए। आप अनहिलपुर पाटण के निवासी थे और जाति से ओसवाल थे । आपका गोत्र वेदमूथा था। आपका जन्म वि० सं० १५५४ में हुआ और दीक्षा वि०सं० १५६८ में हुई। स्व० मणिलालजी के अनुसार आपकी दीक्षा वि० सं० १५६६ में हुई थी और वि० सं० १५६८ में आपने पाटण में २०० घरों को लोकागच्छ का श्रावक बनाया था। यदि आपका जन्म वि०सं० १५५४ में माना जाये और दीक्षा वि०सं० १५६६ में मानी जाये तो ऐसी स्थिति में मात्र १२ वर्ष की अवस्था में २०० घरों को लोकागच्छ का अनुयायी बना लेना समुचित प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि इसके लिए परिपक्व अवस्था की अपेक्षा होती है । पुन: यह भी उल्लेखित है कि वि०सं० १५८५ में आप संथारापूर्वक पाटण में स्वर्गस्थ हुए। ऐसी स्थिति में आपकी कुल आय ३१ वर्ष की ही सिद्ध होती है, जो विचारणीय है । पुन: आप किसके पास दीक्षित हुए थे यह प्रश्न भी थोड़ा विवादास्पद ही प्रतीत होता है, क्योंकि 'स्थानाकवासी जैन मुनि कल्पद्रुम' में आपको भाणांजी का शिष्य बताया गया है। आचार्य हस्तीमलजी ने रूपजी ने किसके पास दीक्षा ग्रहण की इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है और न उनके माता-पिता के नाम का ही उल्लेख किया है। किन्तु 'पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ' में आपके पिता का नाम श्री देवाजी और माता का नाम श्रीमती मृगाबाई उल्लेखित है तथा आपका जन्म वि० सं० १५४३ में बताया गया है । पुनः इसी में यह भी उल्लेखित है कि आपने माघ शुक्ला पूर्णिमा वि०सं०१५६८ में स्वयमेव दीक्षा ग्रहण की, किन्तु दूसरी ओर लोकागच्छ के बड़े पक्ष की पट्टावली में यह उल्लेख है कि आपने शर्बुजय का संघ निकाला था और अहमदाबाद में सरवाऋषिजी के प्रवचन को सुनकर आप ५०० व्यक्तियों के साथ प्रव्रजित हो गये थे। उपलब्ध साक्ष्यों से आचार्य हस्तीमलजी के अनुसार आपका स्वर्गवास वि०सं० १५८५ में पाटण में हुआ था। आपके संथारे के दिनों को लेकर भी मतभेद पाया जाता है। स्व० मणिलालजी के अनुसार आपका संथारा ५२ दिन चला था जबकि एक प्राचीन पत्र में संथारे का काल साढ़े २५ दिन बताया गया है। आपने जीवाजी को अपना पट्टधर घोषित किया था । ऐसा लगता है कि रूपजी के समय लोकागच्छ विभाजित हो गया था जहाँ रूपजी ने 'गुजराती लोकागच्छ' की स्थापना की वहीं वि०सं० १५८० ज्येष्ठ एकम के दिन हीराजी ने 'नागौरी लोकागच्छ' की स्थापना की और उधर पंजाब में वि०सं०१६०८ में श्री सदारंगजी ने 'उत्तरार्द्ध लोकागच्छ' के नाम से लोकागच्छ की तीसरी शाखा की स्थापना की। इस प्रकार अपनी स्थापना के लगभग ५० से ७० वर्ष के अन्दर ही लोकागच्छ तीन भागों में विभक्त हो गया था- गुजराती लोकागच्छ, नागौरी लोकागच्छ और उत्तरार्द्ध (लाहौरी) लोकागच्छ।
लाहौरी लोकागच्छ की स्थापना के विषय में विद्वानों की यह मान्यता है कि इसकी स्थापना लोकागच्छीय रूपजी के शिष्य जीवाजी की परम्परा के किसी यति के १. जैन आचार्य चरितावली, पृष्ठ- ११३ २. जैनधर्म का मौलिक इतिहास, भाग-४, पृष्ठ-७०८
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