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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास दीक्षित बताया गया है। अत: यह सम्भव है कि दीक्षित तो भाणांजी के पास ही हुए हों, किन्तु गच्छनायक के रूप में आपका क्रम भीकाजी से परवर्ती हो । हम देखते हैं कि भाणांजी और भीकाजी दोनों का गच्छनायक या आचार्यकाल अधिक लम्बा नहीं रहा है। भाणांजी अपनी दीक्षा के पश्चात् सम्भवतः आठ-दस वर्ष से अधिक जीवित नहीं रहे । इसी प्रकार भीकाजी या भद्दाऋषिजी का संधनायक काल भी अधिक लम्बा नहीं है। अत: भाणांजी के पास दीक्षित नूनांजी तीसरे क्रम में लोकागच्छ के नायक बने हों । 'पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ' में नूनांजी को भीकाजी के पास वि०सं० १५४५ या १५४६ में दीक्षित बताया गया है, किन्तु मेरी दृष्टि में 'स्थानकवासी जैन मुनि कल्पद्रुम' अधिक विश्वसनीय लगता है। उसके अनुसार तो नूनांजी भाणांजी के समकालीन या उनसे दीक्षित माने जा सकते हैं। श्री भीमाजी
नूनांजी के पट्ट पर भीमाजी विराजित हुए। 'जैन आचार्य चरितावली' एवं 'पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ' में नूनांजी के बाद भीमाजी को लोकागच्छ नायक के रूप में वर्णित किया गया है । आपका निवास स्थान पाली (राजस्थान) था । आप जाति से ओसवाल और गोत्र से लोढ़ा थे । यह भी कहा जाता है कि आप विपुल ऋद्धि छोड़कर दीक्षित हुए थे। 'पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ' में यह उल्लेख है कि भीमाजी ने नूनांजी से दीक्षा ग्रहण की थी, किन्तु 'स्थानकवासी जैन मुनि कल्पद्रुम' में आपको भीकाजी का शिष्य बताया गया है । वास्तविकता क्या है? यह कहना कठिन है । 'पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ' के अनुसार आप वि०सं० १५५० में दीक्षित हुए थे। श्री जगमालजी
भीमाजी के बाद जगमालजी लोकागच्छ के नायक बने । आपकी दीक्षा वि० सं० १५५० में बतायी गयी है । यहाँ यह विचारणीय है कि यदि जगमालजी भीमाजी के शिष्य हैं तो फिर भी दोनों की दीक्षा-तिथि एक ही है। अत: यह दीक्षातिथि विचारणीय है। किन्तु ऐसे भी अनेक उदाहरण हैं जिनमें गुरु और शिष्य की दीक्षा-तिथि एक भी होती है। श्री सरवाजी
जगमालजी के पट्टधर सरवाजी हुए। स्व० मणिलालजी ने आपकी जाति ओसवाल बतायी है । आप दिल्ली के निवासी थे। ऐसी मान्यता है कि आप बादशाह के वजीर थे । आपके दीक्षित होने की बात सुनकर बादशाह को आश्चर्य भी हुआ था। आपकी दीक्षा वि०सं० १५५४ में मानी जाती है ।
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