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________________ पंचम अध्याय लोकागच्छ और उसकी परम्परा लोकाशाह ने दीक्षा ली या नहीं ली- इस प्रश्न पर हमें दोनों प्रकार के साहित्यिक साक्ष्य उपलब्ध होते हैं और उन साहित्यिक साक्ष्यों के अतिरिक्त अभी तक कोई भी ऐसा साक्ष्य उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर कोई मत सुनिश्चित किया जा सके। लेकिन इतना निश्चित है कि लोकाशाह के उपदेश से प्रेरित होकर कुछ लोगों ने गृहस्थ जीवन का परित्याग कर दीक्षा ग्रहण की थी। जो उल्लेख मिलते हैं उनके अनुसार ४५ व्यक्तियों ने एक साथ ही दीक्षा ग्रहण की थी और उन्होंने अपने प्रेरक के नाम से ही अपने गच्छ का नाम लोकागच्छ रखा था। 'इन ४५ व्यक्तियों में लखमसीजी, नूनांजी, शोभाजी, डूंगरसीजी, भाणांजी आदि प्रमुख थे । यह तो निश्चित है कि उस समय जो भी परम्परायें प्रचलित थीं वे सभी यति परम्परायें ही थीं । अत: लोकाशाह की प्रेरणा पाकर जिन लोगों ने भी दीक्षा ग्रहण की थी वे सभी यति परम्परा में ही दीक्षित हुए थे। किन्तु इसका तात्पर्य यह भी नहीं है कि उस समय सम्पूर्ण यति परम्परा शिथिलाचारी हो चुकी थी। कुछ यति अपने संयमी जीवन के प्रति सजग थे। अत: लोकाशाह की प्रेरणा पाकर जिन लोगों ने दीक्षा ग्रहण की वे अपने संयमी जीवन के प्रति सजग रहे और अपने प्रेरणास्रोत के नाम पर अपने गच्छ को लोकागच्छ कहने लगे । वैसे जो सूचनायें उपलब्ध होती हैं उसके आधार पर यह भी ज्ञात होता है कि प्रारम्भ में लोकागच्छीय यति अपने को 'जिनमति' के नाम से सम्बोधित करते थे । मुझे ऐसा लगता है कि चाहे लोकागच्छ प्रारम्भ में अपनी मान्यताओं और आचार के प्रति सजग रहा हो, किन्तु यति परम्परा से प्रभावित होने के कारण वह अपनी मान्यताओं और आचार-व्यवस्थाओं के प्रति बहुत स्थिर नहीं रह पाया । लोकागच्छ की परम्परा में हमें स्थानकवासी सम्प्रदाय की उत्पत्ति के पूर्व आठ प्रमुख पट्टधरों के उल्लेख मिलते हैं। लोकागच्छ के आद्यपुरुष के रूप में हमें भाणांजी का नाम मिलता है । यद्यपि कमलसंयम उपाध्याय ने लोकाशाह के प्रमुख शिष्य के रूप में लखमसीजी का उल्लेख किया है, किन्तु ऐसा लगता है कि लखमसीजी ने दीक्षित होकर के भी प्रधानता भाणांजी को दी होगी। श्री भाणांजी आप लोकाशाह के जन्मस्थान अरट्टवाड़ा के ही निवासी थे । आप जाति से ओसवाल थे । मोहनलाल दलीचन्द देसाई ने आपकी दीक्षा वि०सं० १५३१ में मानी है । किन्तु तपागच्छीय पट्टावलियों में आपकी दीक्षा वि० सं० १५३३ में कही गयी है । दो वर्षों का यह अन्तर कोई ज्यादा अन्तर नहीं है । यद्यपि उपाध्याय रविवर्धन ने अपनी पट्टावली में भाणांजी का दीक्षाकाल वि०सं० १५३८ सूचित किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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