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________________ १३२ __ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास वह धर्म है और जितनी अविरति है वह सब अधर्म है, क्योंकि श्रावक के जीवन को विरताविरत या संयमी-असंयमी कहा गया है। श्रावक जब व्रत के अन्तर्गत होता है तब व्रती होता है और जब वह नहीं होता है तो अव्रती होता है। अत: श्रावक की क्रियायें आंशिक रूप में धर्मकारक और आंशिक रूप में अधर्मकारक भी होती हैं, क्योंकि वह सर्वविरत नहीं है। २१. भगवती के प्रथम शतक के नवम उद्देशक में कहा गया है कि जो श्रमण आधाकर्मी आहार का सेवन करता है उसके द्वारा षटकाय जीवों की रक्षा नहीं हो सकती। जिससे षटकाय जीवों की रक्षा नहीं हो सकती उससे शुद्ध धर्म का पालन कैसे होगा? सुज्ञजन विचार करें? २२. बाइसवें बोल में लोकाशाह लिखते हैं कि जीवाजीवाभिगम में तीर्थङ्कर के कल्याणक, जन्म आदि के अवसर पर देवता एकत्रित होकर अष्टाह्निका आदि महोत्सव करते हैं और मागध, वरदाम, प्रभास आदि तीर्थों का जल और मिट्टी लाते हैं । गंगा, सिन्धु आदि नदियों का जल लाते हैं, द्रह (सरोवर) का जल लाते हैं । इस प्रकार शास्त्र में देवताओं के अनेक कार्य बताये गये हैं। किन्तु क्या देवताओं के द्वारा किये गये ये कार्य उनके मोक्षमार्ग की साधना में सहायक होते हैं ? वस्तुत: देव ये कार्य अपने लौकिक कर्तव्य के वशीभूत करते हैं, धर्म के लिए नहीं । विज्ञजन विचार करें? २३. तेइसवें बोल में कहा गया है कि जो लोग प्रतिमा की स्थापना करते है उनसे पूछना चाहिए कि वे तीर्थङ्कर की प्रतिमा की स्थापना उसकी किस अवस्था की करते हैं। भगवान् महावीर ३० (तीस) वर्ष गृहस्थावस्था में रहे और ४२ (बयालीस) वर्ष तक संयम का पालन किया। यदि तीर्थङ्कर की प्रतिमा उनके गृहस्थावस्था की मानते हैं तो उसका वन्दन करने पर गृहस्थावस्था का ही वन्दन होगा, संयमी अवस्था का नहीं। यदि उनके संयमी जीवन की प्रतिमा बनाते हैं तो उस प्रतिमा में संयमी जीवन के कौन से लक्षण हैं। दूसरे यदि उनके संयमी जीवन की मानते हैं तो सचित्त जल, फूल, आभरण आदि उन्हें कल्प नहीं हो सकते। यदि प्रतिमा फूल, आभरण आदि से युक्त है तो वह संयमी जीवन की प्रतिमा नहीं हो सकती । सुज्ञजन विचार करें? पुनः मोक्षमार्ग में आराध्य गुण होता है, आकृति नहीं । श्रावक आदि मुनि के गुणों का वन्दन करते हैं । यदि मुनि संयमी जीवन से च्युत हो जाये, सचित्त जल आदि का सेवन करे, अन्य लिंग धारण करे, तो उसे कोई भी समझदार श्रावक वन्दन नहीं करता है, क्योंकि वह गुणों से हीन है । अत: जिसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र का गुण न हो वह कैसे वन्दन के योग्य हो सकता है । विवेकीजन विचार करें। २४. इस बोल में लोकाशाह लिखते हैं कि वीतराग के सिद्धान्त में प्रतिमा को आराध्य नहीं कहा गया है । यदि प्रतिमा आराध्य है तो किस वस्तु की प्रतिमा आराध्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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