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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
नगरी, श्रावस्ती नगरी आदि अनेक नगरों के प्रमुख श्रावकों का विवरण मिलता है। उनमें से किसी ने भी तीर्थङ्कर प्रतिमा बनवाई हो, प्रतिष्ठित की हो, पूजी हो, उसकी वन्दना की हो, ऐसा दिखाई नहीं देता । सम्पूर्ण आगम साहित्य में मनुष्य लोक में मात्र द्रौपदी के द्वारा प्रतिमा पूजन का उल्लेख मिलता है और वह भी सांसारिक कार्यों के वश विवाह के समय पूजन का वर्णन है। इसके अतिरिक्त अपने सम्पूर्ण जीवन में उसने कहीं प्रतिमा नहीं पूजी । विवाह के समय प्रतिमा पूजन लोक व्यवहार है, मोक्षमार्ग नहीं। अन्यत्र 'वास्तुशास्त्र' और 'विवेकविलास' में प्रतिमा बनवाने और प्रतिमा को प्रतिष्ठित करने की विधि लिखी हुई है। गृहस्थ के द्वारा जो तीर्थङ्कर प्रतिमा पूजी जाती है वह भी सांसारिक उद्देश्य से ही पूजी जाती है, मोक्ष के उद्देश्य से नहीं, क्योंकि इन्हीं ग्रन्थों में कहा गया है कि २१ तीर्थङ्करो की प्रतिमा घर में रखने पर शान्ति होती है लेकिन तीन तीर्थङ्करों की प्रतिमा रखने पर घर में अशान्ति होती है। उनकी प्रतिमा घर में नहीं रखने का कारण यह माना कि उन्हें पुत्र या सन्तान की प्राप्ति नहीं हुई। प्रतिमा रखने के आधार पर शान्ति और अशान्ति की यह चर्चा करना लोक-व्यवहार है या धार्मिक कार्य ? वैसे तो चौबीस तीर्थङ्कर ही मोक्ष प्रदाता हैं। जिनदत्तसूरि ने 'विवेकविलास' में कहा है कि जिस प्रतिमा का मुख रौद्र हो, शरीर के अन्य अंग सांगोपांग न हो ऐसी प्रतिमा बनवानेवाले को दोष लगता है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि प्रतिमा-पूजन का उद्देश्य लौकिक है, पारलौकिक या आध्यात्मिक नहीं ।
जहाँ तक सूर्याभदेव के द्वारा प्रतिमापूजन का उल्लेख है वहाँ भी उनका पूजन मोक्ष का हेतु नहीं माना गया है, क्योंकि आगम में जहाँ-जहाँ वीतराग के पूजन-वंदन आदि की बात कही गई है वहाँ केवल इतना ही उल्लेख है- पेच्या हियाए सुहाए। अर्थात् वह पूजन-वंदन आदि भावी जीवन के हित और सुख के लिये है। इस अधिकार को देखने पर भी ऐसा ही लगता है कि सूर्याभदेव के द्वारा जो प्रतिमा-पूजन की बात कही जाती है वह मोक्ष के लिये नहीं है। वह लौकिक सुख और हित के लिये है।
कुछ लोगों का यह कहना है कि सम्यक् - दृष्टि को छोड़कर अन्य कोई 'नमोत्थुणं' का पाठ नहीं बोलता है। इस सम्बन्ध में भी लोकाशाह का कहना है कि ऐसा नहीं है। सम्यक् - दृष्टि के अतिरिक्त अन्य कोई 'नमोत्थुणं' का पाठ नहीं बोलता है, यह मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि यह आगम विरुद्ध है । आगमों में जिन घर, जिनप्रतिमा अथवा जिनवरों को धूप दान आदि के जो उल्लेख हैं वे उल्लेख भी वस्तुतः जो वस्तु जैसी है उसको उसी अनुरूप बताने के निमित्त है | आगमों में गोशालक आदि के लिये जो अरहन्त देव जैसे शब्दों का प्रयोग मिलता है वह यही सूचित करता है कि लोक में जिस वस्तु के प्रति जैसी मान्यता होती है आगम में उनका उसी अनुरूप उल्लेख कर दिया जाता है। अतः आगम में जो प्रतिमा-पूजन सम्बन्धी उल्लेख हैं मात्र लोक व्यवहार के निमित्त हैं, वे मोक्ष के हेतु नहीं माने गये हैं ।
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