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लोकाशाह और उनकी धर्मक्रान्ति
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है कि जो श्रमण, ब्राह्मण हिंसा में धर्म बताते हैं और कहते हैं कि धर्म के निमित्त हिंसा करने में दोष नहीं है, उनके ऐसे कथन को तीर्थङ्कर देव ने अनार्य वचन कहा है।
३. तृतीय बोल में लोकाशाह कहते हैं कि जो लोग 'जे आसवा ते परिसवा' के आधार पर यह कहते हैं कि हिंसा आदि जो आस्रव के स्थान हैं वे भी परिस्रव अर्थात् निर्जरा के स्थान बन जाते हैं अर्थात् धर्म के निमित्त होनेवाली हिंसा हिंसा नहीं होती, ऐसे लोगों के कथनों का निराकरण करने के लिए श्रमण भगवान् महावीर ने धर्म के निमित्त हिंसा का समर्थन करनेवाले वचनों को अनार्य वचन कहा है। लोकाशाह कहते हैं कि 'जे आसवा ते परिसवा' का अर्थ यही है कि जो स्त्री आदि कर्मबन्ध का कारण है वही निमित्त पाकर वैराग्य का कारण भी बन जाती है। यदि धर्म के निमित्त की गयी हिंसा पापरूप नहीं है तो फिर आधाकर्मी आहार का ग्रहण साधु के लिए क्यों नहीं निश्चित किया गया ? रेवती के द्वारा बनाया गया पाक भगवान् ने क्यों नहीं ग्रहण किया? साधु के चलने में ईर्या समिति क्यों बतायी गयी । अतः सुज्ञजनों को विचार करना चाहिए कि भगवान् के वचनों का इस तरह से सूत्र विरुद्ध अर्थ करना कहाँ तक उचित है ?
४. 'सूत्रकृतांग' के १७ वें अध्याय के अन्तर्गत भगवान् ने स्पष्ट रूप से दया अर्थात् अहिंसा से ही मोक्ष बताया है । कहीं भी हिंसा से मोक्ष नहीं कहा है।
५. सूत्रकृतांग के १८ वें अध्याय में भगवान् ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जो श्रमण/ ब्राह्मण हिंसा में धर्म बताते हैं वे संसार में परिभ्रमण करते हैं और अत्यधिक दुःखी होकर दरिद्री और दुर्भागी बनते हैं। इसके विपरीत जो दया में धर्म बताते हैं वे संसार-सागर में परिभ्रमण नहीं करते, अपितु सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाते हैं ।
६. कुछ लोग यह कहते हैं कि यदि दया में धर्म है तो फिर मुनि नदी को क्यों पार करते हैं? मुनियों का नदी पार करना धर्म है या अधर्म ? इसके उत्तर में लोकाशाह लिखते हैं कि भगवान् ने नदी पार करने में भी संख्या निर्धारित की है । 'समवायांग' के २१वें समवाय में तथा 'दशाश्रुतस्कन्ध' में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो एक मास के अन्दर तीन उदक लेप लगाता है अर्थात् तीन नदी पार करता है तो वह सबल दोष का भागी बनता है अर्थात् उसका चारित्र दूषित होता है । इसी प्रकार जो वर्ष में दश उदक लेप लगाता है अर्थात् नदी पार करता है तब भी वह सबल दोष का भागी बनता है । यदि भगवान् नदी पार करने को धर्म मानते तो उसके लिए प्रायश्चित्त की व्यवस्था क्यों करते? जो प्रतिमा की पूजा करता है वह यह विचार करता है कि आज मैं कारण विशेष से पूजा न कर सका, इस प्रकार वह उसका पश्चाताप करता है, किन्तु साधु यदि नदी पार नहीं करता है तो क्या वह उसका पश्चाताप करता है कि आज मैं नदी पार नहीं कर सका। सुज्ञजनों को इस सम्बन्ध में विचार करना चाहिए ।
७.
सातवें बोल में लोकाशाह लिखते हैं कि आगमों में तुंगीया नगरी, अलंभिया
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