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________________ स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास है तो प्रतिमा (जड़) में कौन-सा गुण है ? यदि आकार वन्दनीय है तो आकारवंत दुष्चरित्र व्यक्ति वन्दनीय क्यों नहीं है ? ४. प्रतिमा की अवस्था गृहस्थ वय की है अथवा साधु वय की ? यदि गृहस्थ की है तो साधु के लिए वन्दनीय नहीं है और यदि उसे साधु की मानते हैं तो उसमें साधु के चिह्न क्यों नहीं है? दूसरे यदि वह साधु अवस्था की प्रतिमा है तो फिर उसको फूल,जल दीपक आदि का अर्पण कैसे हो सकता है, क्योंकि साधु के लिए ये वस्तुएँ कल्प्य नहीं हैं। ५. देव प्रमुख है या गुरु । यदि देव को फूल आदि चढ़ाते हैं तो फिर गुरु को क्यों नहीं चढ़ाते ? यदि यह कहें कि गुरु महाव्रती हैं तो क्या देव (तीर्थङ्कर) अविरति है? ६. कितने ही साधु श्रावक के द्वारा प्रतिमा का पूजन करवाते हैं । क्या पूजन करनेवाला श्रावक प्रतिमा का पूजन धर्म समझकर करता है? यदि वह धर्म समझकर पूजन करता है तो फिर धर्म समझकर यति उसकी पूजा क्यों नहीं करता? ७. यदि यह कहें कि यति व्रती होते हैं और उन्हें हिंसादि पाप नहीं करने का नियम होता है, करवाने का नियम नहीं होता तो यह भी उचित नहीं है। क्योंकि साधु के नियम त्रिकरण और त्रियोग से होते हैं। ८. प्रतिमा को वन्दन करनेवाला वन्दन करते समय किसको वन्दन करता है? यदि कहें कि वह प्रतिमा को वन्दन करता है तो उसका वन्दन तो वीतराग को नहीं हुआ । यदि कहें कि वह वीतराग को वन्दन करता है तो फिर प्रतिमा को वन्दन नहीं हुआ। यदि कहें कि प्रतिमा और वीतराग पृथक् नहीं हैं तो वीतराग को अजीव संज्ञा प्राप्त होगी । दूसरे यदि उन्हें अलग-अलग मानते हैं तो सिद्धान्त के अनुसार एक समय में दो अलग-अलग क्रियायें नहीं हो सकती अर्थात् एक साथ प्रतिमा और वीतराग की वन्दना सम्भव नहीं हो सकती । ९. कितने ही लोगों के देव, गुरु और धर्म सारम्भी और सपरिग्रही होते है और कितने ही लोगों के देव, गुरु और धर्म निरारम्भी और निष्परिग्रही होते हैं । विचार करके देखिए कि आपके देव और गुरु किस प्रकार के हैं ? १०. कितने ही लोगों के मन में ऐसा विचार होता है कि पुतली आदि को देखकर राग उत्पन्न होता है तो प्रतिमा को देखकर वैराग्य क्यों नहीं होगा? इस शंका का समाधान यह है कि एक अनार्य पुरुष पर प्रहार करने से पाप लगता है तो उसका वन्दन करने से पुण्य क्यों नहीं लगेगा? यदि पुत्र आदि पर आसक्ति हो तो पुत्र आदि का किया हआ पाप पिता को लगता है तो बेटे के द्वारा किया हआ धर्म पिता का क्यों नहीं लगेगा? यदि यह कहते हैं कि सर्प आदि को मारना पाप है तो फिर उस सर्प का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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