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________________ आर्य सुधर्मा से लोकाशाह तक आर्य लौहित्य आर्य लौहित्य के विषय में कोई विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। नन्दीसूत्र' स्थविरावली में आपके श्रुतज्ञान सम्बन्धी जानकारी के अतिरिक्त अन्य कोई सूचना उपलब्ध नहीं होती हैं दिगम्बर परम्परा में भी आर्य लोहार्य या लोहाचार्य के नाम का उल्लेख मिलता है। आर्य दूष्यगणी आर्य दूष्यगणी का युगप्रधानाचार्य पट्टावली में नाम उपलब्ध नहीं होता है। नन्दीसूत्र स्थविरावली में वाचक आर्य नागार्जुन के पश्चात् आर्य भूतदिन, आर्य लौहित्य और आर्य दुष्यगणी का नाम आया है, जो वाचनाचार्य है। नन्दीसत्र स्थविरावली में इनके श्रुतज्ञान का परिचय भी उपलब्ध होता है। सामान्य जीवन सम्बन्धी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली में आर्य संडिल्ल के गुरुभ्राता की परम्परा में आर्य देसीगणी क्षमाश्रमण का नाम उपलब्ध होता है। इस सम्बन्ध में आचार्य हस्तीमलजी ने यह संभावना व्यक्त की है कि दूष्यगणी और देसीगणी ये दोनों नाम एक ही आचार्य के हो सकते हैं।६ देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण जैन इतिहास में आर्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण का नाम बड़े ही आदर एवं सम्मान से लिया जाता है। वर्तमान आगम साहित्य को मूर्त रूप प्रदान करने का पूर्ण श्रेय आर्य देवर्द्धिगणी को ही जाता है। इनका जन्म सौराष्ट्र के वैरावल पाटण में काश्यप गोत्रीय क्षत्रिय कामर्द्धि के यहाँ हुआ। इनकी माता का नाम श्रीमती कलावती था। इनकी गुरु परम्परा को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं है। 'कल्पसूत्र' स्थविरावली के अनुसार ये कुमार धर्मगणि के पट्टधर थे और नन्दीसूत्र स्थविरावली के अनुसार आर्य लौहित्य इनके गुरु थे। जबकि 'नन्दीचूर्णि' में इनके गुरु के रूप में आर्य दूष्यगणी के नाम का उल्लेख हैं चूर्णिकार जिनदासगणीमहत्तर ने देवर्द्धिगणी को दूष्यगणी का शिष्य माना है। देवर्द्धिगणी का दूसरा नाम देववाचक भी था- ऐसा उल्लेख जिनदास गणि महत्तर की चूर्णि और मलयगिरि की टीका में मिलता है। टीकाकार आर्य मलयगिरि, चूर्णिकार जिनदासगणीमहत्तर और मेरुतुंग ने दूष्यगणि और देवर्द्धि को गुरु-शिष्य माना है। साथ ही विद्वानों का यह भी कथन है कि 'नन्दीसूत्र' स्थविरावली आर्य महागिरि की परम्परा है, अत: देवर्द्धि सुहस्ति की परम्परा के नहीं बल्कि आर्य महागिरि की परम्परा के हैं। देवर्द्धिगणि के पश्चात् ___'कल्पसूत्र' और 'नन्दीसूत्र' की स्थविरावलियों के आधार पर महावीर से लेकर देवर्द्धिगणी तक की आचार्य परम्परा का संक्षिप्त बोध हो जाता है। यद्यपि ये स्थविरावलियाँ भी उस समय में रही हुई जैनसंघ की सभी परम्पराओं की सूचक नहीं हैं। ये विशेष रूप से कोटिक गण की वज्री शाखा से सम्बन्धित प्रतीत होती हैं। यद्यपि For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001740
Book TitleSthanakvasi Jain Parampara ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain, Vijay Kumar
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2003
Total Pages616
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & religion
File Size10 MB
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