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आर्य वज्र
आर्य वज्र का उल्लेख वाचकवंश पट्टावली में १९ वें क्रम पर मिलता है। युगप्रधान पट्टावली में इनका उल्लेख १८ वें क्रम पर है, जबकि 'कल्पसूत्र' स्थविरावली में इनका उल्लेख १३ वें क्रम पर मिलता है । आर्य वज्र गौतम गोत्रीय थे । इनके पितामह धन और पिता धनगिरि व माता सुनन्दा थी। धनगिरि भोगासक्ति से विरक्त ही रहे । आर्य धनगिरि आर्यवज्र के जन्म के पश्चात् ही दीक्षित हो गये थे। आर्य धनगिरि आर्य दिन के शिष्य के प्रशिष्य एवं आर्य सिंहगिरि के शिष्य थे। बाल्यावस्था में ही आर्य वज्र को उनकी माता ने श्रमण धनगिरि को सुपुर्द कर दिया था। इस प्रकार आर्यवज्र का विकास श्रमण- श्रमणियों की देखरेख में ही हुआ। आर्य वज्र अत्यन्त प्रतिभा सम्पन्न थे। उन्होंने आर्य भद्रगुप्त से अंग और पूर्वों का अध्ययन किया । भद्रगुप्त का उल्लेख वाचकवंश की पट्टावली में मिलता है। ये युवावस्था में वचनाचार्य और बाद में आचार्य पद पर सुशोभित हुये। इनके जन्म, दीक्षा आदि के सम्बन्ध में हमें कोई विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती है । स्वर्गवास वी०नि० सं० ५८४ में हुआ। इनकी आयु ८० वर्ष की मानी गयी है, अतः इनका जन्म वि०नि०सं० ५०४ तथा बाल्यावस्था में ही दीक्षित होने के कारण दीक्षावर्ष वी०नि० सं० ५१२ के आस-पास होना चाहिए।
आर्य वज्र की शिष्य परम्परा
स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
आर्य वज्र के तीन प्रमुख शिष्य थे- आर्य वज्रसेन, आर्य पद्म और वत्सगोत्रीय आर्य रथ। इनमें आर्य वज्रसेन से आर्यनागरी शाखा निकली। आर्य पद्म से आर्य पद्मा शाखा और आर्य रथ से आर्य जयन्ती शाखा निकली। सम्भवतः ये शाखायें भी कोटिक गण की ही रही हैं। इन शाखाओं की अग्रिम परम्परा के सम्बन्ध में हमें 'कल्पसूत्र' स्थविरावली से कोई सूचना प्राप्त नहीं होती है। 'कल्पसूत्र' स्थविरावली का गद्य भाग आर्य वज्र सम्बन्धी निर्देश के पश्चात् समाप्त हो जाता है। आगे पुनः नौ पद्यों में फल्गुमित्र से लेकर देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण तक की परम्परा प्रस्तुत की गयी है । स्थविरावली के इस अंश का प्रारम्भ फल्गुमित्र से होता है। 'कल्पसूत्र' स्थविरावली में आर्यवज्र के पश्चात् आर्यरथ का उल्लेख है। आर्यरथ के शिष्य कौशिक गोत्रीय आर्य पुष्यगिरि और उनके शिष्य गौतम गोत्रीय आर्य फल्गुमित्र हुये । गौतम गोत्रीय फल्गुमित्र के शिष्य वशिष्ठ गोत्रीय धनगिरि हुये। आर्य वज्र के पिता धनगिरि गौतम गोत्रीय थे जबकि आर्य फल्गुमित्र के शिष्य आर्य धनगिरि वशिष्ठ गोत्रीय थे । इससे ऐसा लगता है कि एक ही काल में धनगिरि नाम के दो आचार्य रहे, क्योंकि यदि हम आर्यवज्र का स्वर्गवास वी०नि० सं० ५८४ मानते हैं तो धनगिरि के शिष्य शिवभूति एवं कृष्ण के उल्लेख है । शिवभूति और आर्य कृष्ण में वस्त्र सम्बन्धी विवाद वी०नि०सं० ६०९ में माना गया है। इस प्रकार आर्यवज्र के स्वर्गवास और शिवभूति तथा आर्यकृष्ण के बीच मात्र २५ वर्ष का अन्तर रहता है। इन २५ वर्षों में फल्गुमित्र, धनगिरि,
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