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जिससे उस हेतु को पुनःरपि देखने पर उस सम्बन्ध का स्मरण हो, और जीव के अस्तित्व के विषय में अनुमान किया जा सके । '
आगम प्रमाण से जीव का अस्तित्व भी सिद्ध नहीं- आगम प्रमाण भी वस्तुतः अनुमान प्रमाण से अलग नहीं है। क्योंकि आगम के दो भेद है- दृष्टार्थ विषयक और अदृष्टार्थ विषयक। दृष्टार्थ विषयक आगम स्पष्टरूप से अनुमान है। जैसे 'कल्पवृक्ष' शब्द सुनते ही पूर्व में दृष्टिगत अमुक आकृति वाले पदार्थ के निश्चय का पुनः स्मरण होता है, उससे अनुमान कर लिया जाता है कि वक्ता क्या कहना चाह रहा है । परन्तु हमने कभी सुना ही नहीं कि जीव शरीर से भिन्न अर्थ में प्रयुक्त होता है तब दृष्टार्थ विषयक आगम से जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व की सिद्धि कदापि सम्भव नहीं है।
स्वर्ग-नरक आदि पदार्थ अदृष्ट है अर्थात् परोक्ष है । अदृष्टार्थ विषयक आगम परोक्ष पदार्थों के प्रतिपादक वचनरूप होता है । स्वर्ग-नरक का प्रतिपादक वचन प्रमाण स्वरूप होता है क्योंकि वह चन्द्र ग्रहण आदि वचन के समान अविसंवादी वचन वाले आप्त-पुरुष का वचन है किन्तु अदृष्टार्थ जीव के विषय में ऐसा अनुमान स्वरूप प्रमाण नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई भी आप्त पुरुष स्वयं सिद्ध नहीं है, जिसमें आत्म प्रत्यक्ष हो और उसके वचन प्रमाण भूत हो। एतदर्थ आगम प्रमाण के प्रकाश में जीव की सिद्धि सम्भव नहीं है । तथा कतिपय आगम रूप में मान्य पुस्तकों में विभिन्न मन्तव्य परिलक्षित हैजैसे- चार्वाक शास्त्रों में कहा है कि- "जो कुछ इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य है, उतना ही लोक है ।" आत्मा इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है अतः अभावस्वरूप है। किसी ऋषि ने उक्त तथ्य का प्रस्तुत उक्ति से समर्थन किया है- “इन भूतों से विज्ञानघन प्रकट होता है और भूतों के नष्ट होने पर वह भी नष्ट हो जाता है। महात्मा बुद्ध ने भी आत्मा का अभाव बताते हुए कहा है कि 'रूप पुद्गल नहीं है।' बाह्य दृश्यमान वस्तु जीव नहीं है। कहीं पर आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया है जैसे कि- वेदों में उल्लेख है- सशरीर आत्मा को प्रिय-अप्रिय का अनुभव होता हैं, किन्तु शरीर रहित आत्मा को प्रिय और अप्रिय का स्पर्श
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णय सोऽणुमाणगम्मो, जम्हा पच्चक्ख पुव्वयं तं पि
पुव्वोवलद्ध सम्बध सरणत्तो, लिंगलिंगींण ।। विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1550
2 " णय जीव लिंगबंधदरिसिणमभू जतो पुण सरतो ।
तल्लिंग दरिसणत्तां जीवो सपच्चओ होज्जा" ।। विशेष्यावश्यक भाष्य, गाथा - 155
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"एतवानेवं लोकोऽयं यावानिन्द्रिय गोचर" चार्वाकदर्शन,
“विज्ञानधन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, बृहदारण्यक उपनिषद 2/4/12.
"न रूपं भिक्षवः ! पुद्गलः, बौध्दत्रिपिटक
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