SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वैदिक परम्परा में आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकारने वाले व नकारने वाले दोनों मतों का विवरण निम्नानुसार है। : वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में आत्मा के अस्तित्व न मानने वाले मत उनका कथन है कि - इन्द्रियों के द्वारा जो दृष्टिगत होता है वही संसार है, उसके अतिरिक्त पुण्य-पाप, परलोक कुछ भी नहीं है। भट्ट ने लिखा है कि "विज्ञानधन एवेतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति प्रेत्यसंज्ञास्ति ।" अर्थात् विज्ञानधन स्वरूप यह आत्मा पंचभूतों से उत्पन्न होता है, और भूतों के नाश होने पर आत्मा का भी नाश हो जाता है। वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में आत्मा के अस्तित्व को मानने वाले मत वेदवाङ्मय में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया है "न हि वे सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति, अशरीर वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः " सशरीरी को प्रिय-अप्रिय, सुख और दुःख का वियोग नहीं होता और अशरीर को प्रिय-अप्रिय - सुख - दुःख स्पर्श नहीं करते । "अग्निहोत्रं जुहुयात् - स्वर्गकामः" स्वर्ग की इच्छा रखने वाले अग्निहोत्र (यज्ञ) करें । ऋग्वेद में भी कहा गया है कि “इमं जीवेभ्यः परिधि दधामि मैषां नु गादपरो अर्थमेतत् "" यजुर्वेद में भी जीव के अस्तित्व को बताने वाला सूत्र है "न वाऽउ एतन्प्रियसे न रिष्यसि " 2 अथर्ववेद में भी "आत्मानं पितरं पुत्रं पौत्रं पितामहम् । जायां जनित्रीं मातरं ये प्रियास्तानुपह्वये । "3 इसी प्रकार अन्य वैदिक ग्रन्थों में आत्मा के अस्तित्व के बारे में बताया है ताण्ड्य महाब्राह्मण ग्रन्थ में 1 ऋग्वेद 10/18/4 2 यजुर्वेद 25/44 3 अथर्ववेद 9/5/30 Jain Education International 77 For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy