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आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकृत करने वाले मत आत्माद्वैतवाद
उत्तर मीमांसावादी वेदान्ती अद्वैतब्रह्म को मानते है, उनका प्रधान सिद्धान्त है कि“सर्व खल्विदं ब्रह्म, नेह नानास्ति किंचन' अर्थात् इस जगत में सब कुछ ब्रह्मरूप ही है, उसके अतिरिक्त नाना दिखाई देने वाली वस्तुएं कुछ नहीं है। चेतन, अचेतन (पृथ्वी आदि पंचभूत तथा जड़ पदार्थ) जितने भी पदार्थ हैं, वे सबके ब्रह्म रूप है। सभी प्राणियों के शरीर में जो भूतकाल में रहा है, भविष्य में रहेगा, वह एक ही ब्रह्म आभासित हो उठता है। आत्मा एक ही है और वह अद्वितीय है।
आत्मषष्ठ्वाद
इस जगत में पृथ्वी, जल, तेज वायु और आकाश तथा आत्मा ये षट्विध पदार्थ है। ऐसा मन्तव्य वेदवादी, सांख्य और वैशेषिक इन तीनों का है। ये आत्मा को आकश के समान सर्वव्यापी तथा अमूर्त होने के कारण नित्य रूप में मानते हैं, तथा पृथ्वी आदि पांचमहाभूत भी स्वरूप से विनाशी नहीं है, एतदर्थ उनके मत में ये भी नित्य है।' नियतिवाद
इस मत के अनुसार सभी जीव अपना-अपना अलग अस्तित्व रखते हैं। यह बात प्रत्यक्ष-अनुमान एवं युक्तियों से सिद्ध होती है। जब तक पृथक्-पृथक् आत्मा नहीं मानी जायेगी, तब तक जीव अपने द्वारा कृत कर्मबन्ध के फलस्वरूप प्राप्त होने वाला सुख-दुःख भी नहीं भोग सकेगा।
इसी प्रकार आजीवक मत वाले आत्मा को स्वीकार तो करते है किन्तु उसमें पुरुषार्थ अर्थात् स्वतन्त्रतापूर्वक, कुछ करने की शक्ति का अभाव मानते है।
यद्यपि जैन आगम ग्रन्थों में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करने और अस्वीकार करने वाले दोनों मत है। किन्तु इन्द्रभूति गौतम मूलतः वैदिक परम्परा विद्वान् है अतः उनकी शंका का मूल कारण है वैदिक साहित्य । वैदिक साहित्य में भी आत्मा के अस्तित्व और अनस्तित्व सम्बन्धी वचन मिलते है।
ब्रह्मसूत्र, सूत्रकृतांग विवेचन, पृ. 24 २ सूत्रकृतांगसूत्र, गाथा 15, वही, पृ. 32
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