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________________ तज्जीवतच्छरीरवाद प्रत्येक प्राणी की आत्मा भिन्न है, वह अपने आप में सम्पूर्ण है, पूर्णतः शक्तिमान है, किन्तु जब शरीर विनष्ट हो जाता है तब आत्मा भी नष्ट हो जाती है। क्योंकि शरीर रूप में परिणत पंचमहाभूतों से चैतन्य प्रकट होता है, अतःएव उनके अलग-थलग होने पर वह चैतन्य भी क्षीण हो जाता है, शरीर के साथ चैतन्य विनाश का कारण यह है कि शरीर से बाहर निकल कर कही अन्यत्र जाता हुआ चैतन्य प्रत्यक्षतः दृष्टिगत नहीं होता।' चतुधातुकवाद इनका मन्तव्य है कि जगत् में पृथ्वी, जल, तेज और वायु ये चार धातु ही सर्वस्व है। ये इसलिए धातु कहलाते हैं। ये चारों धातु एक साथ मिलकर जगत् को उत्पन्न करते हैं, धारण करते है और पोषण करते हैं, इन्हीं से जगत् की उत्पत्ति होती है। यही जब एकाकार होकर शरीररूप में परिणत होते हैं, तब इनकी जीव संज्ञा होती है। चारों धातुओं से भिन्न आत्मा नामक कोई पदार्थ नहीं है। "धातु-र्धातुकमिंद शरीरम् न तद्व्यतिरिक्त आत्माऽस्तीति। पंचस्कन्धवाद __ असत् कार्यवादी बौद्ध मत के अनुसार रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार ये पांच ही स्कन्ध हैं, इनसे भिन्न कोई आत्मा नामक स्कन्ध नहीं है। न स्कन्धों से भिन्न आत्मा का प्रत्यक्ष से ही अनुभव होता है। उस आत्मा को साथ अविनाभावी सम्बन्ध रखने वाला कोई निर्दोष चिह्न भी गृहीत नहीं होता है, जिससे कि अनुमान द्वारा आत्मा सिद्ध हो सके। जब प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा आत्मा सिद्ध नहीं है तब दूसरे प्रमाणों से कैसे सिद्ध हो सकती है? - सूत्रकृतांगसूत्र, गाथा 11-12, वही, पृ. 25-26 वही, गाथा 18, वही, पृ. 37 'वही, गाथा 17, वही, पृ. 35 75 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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