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द्वितीय अध्याय जैन आगम में आत्मा एवं उसके अस्तित्व की समस्या
और उसका समाधान
आत्मा के अस्तित्व के प्रति शंका क्यों?
मानव मन में एक प्रश्न सदा से उठता रहा है कि-आत्मा क्या है? उसका अस्तित्व है या नहीं? चेतन तत्व के रहस्य के उद्घाटन की प्रवृत्ति मनुष्य में अति आरम्भ से रही हैं। व्यक्ति सामान्य रूप से यह नहीं समझ पाता है कि-जब वह मैं शब्द का प्रयोग करता है तब वह "मैं" किसका प्रतिनिधित्व करता है? क्या "मैं' का अभिप्राय उच्चारणकर्ता के शरीर से है? अथवा "मैं" शरीर से भिन्न कोई अन्य तत्व हैं? व्यक्ति जब इतना समझ लेता है तब यह शरीर “मैं' नहीं है। किन्तु अन्ततः यह "मैं" कौन है? यह जिज्ञासा मूर्तिमान रहती है।
आत्मा के अस्तित्व के प्रति शंका का मूल कारण जैन और वैदिक दोनों ही परम्परा के धर्मग्रन्थों में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारने व नकारने वाले मतों और वक्तव्यों का पाया जाना है। संक्षेप में ये धर्म-ग्रन्थ और इनमें उल्लिखित मत निम्नानुसार
जैन आगम ग्रन्थों में आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता नहीं मानने वाले मत
पंचमहाभूतवाद
पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश, ये पांच महाभूत हैं। ये पांच महाभूत सर्वलोकव्यापी एवं सर्वजन-प्रत्यक्ष होने से इसी दृष्टि से महान् है। इस विश्व में इनके अस्तित्व को कोई नकार नहीं सकता है, पांच भूतों से भिन्न आत्मा नामक तत्व परलोक में जाने वाला, सुख-दुःख का भोक्ता कोई अन्य पदार्थ नहीं है। पृथ्वी आदि जो पांचमहाभूत है, ये शरीर रूप में परिणत होते है तत्पश्चात् इन्हीं भूतों से अभिन्न ज्ञानस्वरूप एक आत्मा उत्पन्न होती है।'
सूत्रकृतांगसूत्र, गाथा 7-8, प्रथम अध्ययन, मधुकर मुनि, ब्यावर, पृ. 20
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