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________________ कर्मबद्ध जीव को कदापि मोक्ष नहीं हो सकता क्योंकि वह सदैव कर्म से आबद्ध रहेगा। अतःएव वास्तव में जीव और कर्म इन दोनों का बन्ध नहीं मानना चाहिये, केवल जीव और कर्म का स्पर्श ही मानना चाहिए। इस प्रकार वह अबतिकवाद का प्रचार करने लगा। इस प्रकार इन सातों निह्नवों के मन में जो-जो शंकाएं उद्भूत हुई वे मिथ्यापूर्ण अभिनिवेश से समुत्पन्न हैं। इन्हें निह्नव इसलिए कहा गया कि इनका मत भगवान् महावीर के मत से आंशिक रूप से भिन्न था। उपसंहार जैन साहित्य में आगम-साहित्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। भारतवर्ष की पावन धरा पर दो संस्कृतियों का अमृत प्रवाह प्रवहमान है - प्रथम, श्रमण और द्वितीय वैदिक। वैदिक संस्कृति के मूलभूत ग्रन्थ वेद हैं जिन्हें श्रुति भी कहा जाता है। श्रमण धारा का एक प्रमुख अंग जैन-परम्परा भी है, उसके आधार जैन स्परूप ग्रन्थ जैन आगम साहित्य हैं। जैन आगमों के लिए 'श्रुत' शब्द का प्रयोग होता है। वैदिक संस्कृति वेदों को अपौरूषेय मानती है, जबकि श्रमण (जैन) संस्कृति आगमों को सर्वज्ञों द्वारा उपदिष्ट रूप में स्वीकार करती है। जैन परम्परा में विशाल और विस्तृत श्रुत साहित्य है, यह इस अध्ययन से परिज्ञात हो जाता है। दिगम्बर परम्परा और श्वेताम्बर परम्परा इस श्रुत साहित्य को भिन्न-भिन्न रूपों में अपनाती है। भाषा अथवा वर्ग में भिन्नता अवश्य है तथापि भाव तो वही है, जो सर्वज्ञ भगवान ने कहा है। मूल रूप में सिद्धान्त एक ही है। इन दोनों परम्परा के मान्य ग्रन्थों में आत्मा, कर्म, पुण्य-पाप आदि विषयों पर चर्चा विस्तार से प्राप्त होती है। श्वेताम्बर परम्परा में जो स्थान गणधर सुधर्मा स्वामी के द्वारा सूत्रबद्ध द्वादशांगी का है वही स्थान दिगम्बर परम्परा में “पुष्पदन्त” व “भूतबलि” द्वारा रचित षट्खण्डागम और “गुणधर" द्वारा रचित कषायपाहुड़ का है। मूल साहित्य के बाद व्याख्या साहित्य भी प्रचुर मात्रा में निर्मित हुआ है, क्योंकि आगमों में कतिपय विषय ऐसे हैं जिनकी व्याख्या करना जनता-जनार्दन की ज्ञानवृद्धि के लिए आवश्यक हो जाता है। एतदर्थ मनीषि आचार्यों ने अपनी प्रतिभानुसार नियुक्ति, चूर्णी, टीका व भाष्य की सारस्वत संरचना की। • 72 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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