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जल ठण्डा होने से पैरों में शीतलता का अनुभव हो रहा था। मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से उसके मन में विचार आया कि सूत्रों में वर्णन है कि एक समय में एक ही क्रिया का वेदन हो सकता है, किन्तु मुझे एक साथ दो क्रियाओं - शीत व उष्ण का अनुभव हो रहा है। अनुभव के विपरीत होने से शास्त्रवचन यथार्थ नहीं है। इस प्रकार वह अपलाप करता हुआ द्वैक्रियावाद की प्ररूपणा कर बैठा।' षष्ठम निह्नव 'रोहगुप्त' ने त्रैराशिक मत का निरूपण किया। इस मत का अर्थ है - जीव, अजीव और नोजीव – इस प्रकार तीन राशियों का सद्भाव । उस समय अरंजिका नगरी में पोट्टशाला परिव्राजक आया हुआ था, उसने चुनौती दी कि कोई विद्वान मुझे पराजित नहीं कर सकता। रोहगुप्त ने सगर्व चुनौती स्वीकार की। तब पोट्टशाला ने दो राशियों की स्थापना की, राहगुप्त ने उसे परास्त करने के लिए एक तीसरी राशि 'नोजीव' की स्थापना की। जब उसने गुरू के सामने अथैति वृतान्त सुनाया तो गुरू ने प्रायश्चित लेने के लिए कहा, पर वह मिथ्या अभिनिवेश के कारण अपनी विचारधारा को तिलांजलि देने को तत्पर नहीं हुआ, अन्ततः उसने और त्रैराशिक मत की प्ररूपणा की। सप्तम निह्नव गोष्ठामाहिल ने अबद्विकवाद का निरूपण किया। उसने इस मान्यता का प्रचार किया कि जीव और कर्म इन दोनों का बन्ध नहीं होता अपितु स्पर्शमात्र होता है। एकदा आचार्य दुर्बलिका पुष्यमित्र शिष्यों को कर्मबन्धाधिकार की स्वाध्याय कर रहे थे। उसमें ऐसा वर्णन आया कि – जीव के साथ कर्मों का संयोग तीन प्रकार का होता है - स्पृष्ट, बद्धस्पृष्ट, और निकाचित । "स्पृष्ट कर्म' स्थिति को बिना प्राप्त हुए बिना जीव से अलग हो जाता है- जैसे शूष्क भित्ति पर विद्यमान धूल। ‘बद्धस्पृष्ट कर्म' कुछ समय पाकर विलग होते हैं, जैसे - लिप्त भित्ति पर संश्लिष्ट रज कण। जो कर्म निकाचित है वह जीव के साथ एकत्व को प्राप्त कर लेता है, कालान्तर में उदय में जाता है। गोष्ठामाहिल यह सुनकर कहने लगा कि – जब ऐसा कथन है तब जीव और कर्म कभी अलग नहीं होने चाहिए, क्योंकि वे एकरूप हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में
' पर्युषण साधना, साध्वी राजीमति, वही, पृ. 276 2 जैन साहित्य का बृहद्इतिहास, भाग 3, वही, पृ. 193
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