SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जा सकता हैं। परन्तु तिष्यगुप्त ने इसका अभिप्रेत अभिप्राय नहीं समझा। मिथ्यात्वोदय के दुष्प्रभाव ने ऐसा चक्र घुमाया कि उसके मन में विपरीत धारणा हुई- एक प्रदेश भी जीव नहीं है, इसी प्रकार संख्यात-असंख्यात प्रदेश भी जीव नहीं है, अन्तिम एक प्रदेश के बिना सब निर्जीव है, अतः वही एक जीव है जो जीव को पूर्ण बनाता है, इसके अतिरिक्त समस्त प्रदेश अजीव है। इस तरह प्रादेशिकवाद की प्ररूपणा की।' तृतीय निह्नव की अवधारणा अव्यक्तवाद के रूप में है। श्वेतांबिका नगरी में आषाढ़ नामक आचार्य ठहरे हुए थे। उनके अनेक शिष्य योग साधना में लीन थे, आचार्य अकस्मात् रात्रि में मृत्यु प्राप्त कर देव हुए, उन्हें योगसंलग्न शिष्यों पर दया आई और वे पुनः अपने मृतशरीर में प्रविष्ट हुए और योग साधना समाप्त होने पर शिष्यों को कहा कि मुझे क्षमा करना, मैंने असंयति होकर आपसे सविधि वन्दना करवाई। तब उन शिष्यों के मन में शंका उत्पन्न हुई कि संयत कौन और असंयत कौन है? यह निश्चय करना वस्तुतः कठिन है, अतःएव किसी को वन्दना नहीं करनी चाहिए, उन्होंने परस्पर में वन्दना करना छोड़ दिया, इस तरह प्रत्यक्ष के साथ अप्रत्यक्ष जीवाजीवदि तत्वों में संदेह होना स्वाभाविक था। इस प्रकार अव्यक्तवाद की प्ररूपणा हुई। चतुर्थ निह्नव 'अश्वमित्र' हुए, जिनका अभिमत था - सामुच्छेदिकवाद। समुच्छेद का अर्थ है - जन्म होते ही अत्यन्त नाश। वह अनुप्रवादपूर्व का अध्ययन कर रहा था, उसमें वर्णन आया कि वर्तमान समय के नारक द्वितीय समय में विच्छिन्न हो जायेंगे, इसी प्रकार वैमानिकादि भी है। उसके मन में शंका हुई कि यदि इस प्रकार उत्पन्न होते ही जीव नष्ट हो जाता है तब वह कर्म का फल कब भोगता है? क्योंकि सभी जीव उत्पन्न होते ही तत्काल नष्ट हो जाते हैं। इस तरह वह एकान्त समुच्छेद का प्रचार करने लगा। पंचम निह्नव 'गंग' ने द्विक्रियावाद का निरूपण किया। एकदा वह नदी पार कर रहा था, वह खल्वाट् था जिससे उसका मस्तिष्क जल रहा था किन्तु नदी का 5. 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, वही, पृ. 190 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, वही, पृ. 191 'पर्युषण साधना, साध्वी राजीमति, वही, पृ. 275 70 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy