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अस्तित्व 4. निर्वाण का अस्तित्व 5. भूत का अस्तित्व 6. परलोक का अस्तित्व। ये छ: मुख्य और छ: अवान्तर शंकायें हैं यदि इन छ: शंकाओं को संक्षिप्त में वर्गीकृत करते हैं तब जीव, महाभूत और कर्म इन त्रिविध रूपों में समाहित किया जा सकता है। जीव और कर्म के सहयोग से ही प्रपंच है और इनका वियोग होने पर जीव का मोक्ष होता है - बन्ध के तरतम्य के आधार से देव, नारक, परलोक, पुण्य-पाप की विचारणा की जाती है।
इस रूप में वेदज्ञों के मन में जो शंकाएँ उत्पन्न हुईं और बद्धमूल हुई उनका उद्भव वेदों एवं उपनिषदों का प्रमुख कारण वेद और उपनिषद में उपलब्ध मतमतान्तर है। निह्नववाद की दार्शनिक समस्याएँ
निह्नव वह व्यक्ति विशेष है जो किसी महापुरुष के सिद्धान्त को मानता हुआ भी किसी विशेष विषय में विरोध उपस्थित करता है और सत्यपूर्ण तथ्य को प्रछन्न कर देता है तदनन्तर वह व्यक्ति एक अलग मत का प्रवर्तक बन कर जनता जनार्दन को भ्रमित कर देता है। भगवान महावीर के शासन में सात निह्नव हुए।
जमालि प्रथम निह्नव है, उसने बहुरतवाद का निरूपण किया। उसने एक बार शिष्यों को शय्या बिछाने की आज्ञा दी, कुछ समय पश्चात् शिष्य से पूछा कि संस्तारक बिछा दिया? शिष्य ने शय्या बिछाते-बिछाते उत्तर दिया कि - हाँ, हो गया है, जबकि संस्तारक बिछाया जा रहा था। तब उसने सोचा कि जब तक क्रिया पूर्ण नहीं हो तब तक उसे कृत या निष्पन्न कैसे कहा जा सकता है? यदि उसी समय उसे निष्पन्न कह दिया जाये तब शेष क्रिया व्यर्थ रूप सिद्ध होगी? प्रत्येक क्रिया की सम्पन्नता के लिए कतिपय क्षणों की आवश्यकता होती है, अतः भगवान महावीर का जो सिद्धान्त क्रियमाणकृत' है वह झूठा है, इस तरह बहुरतवाद की प्ररूपणा हुई। द्वितीय निह्नव तिष्यगुप्त ने जीवप्रादेशिक मत की स्थापना की। एकदा वह आत्मप्रवादपूर्व के अध्ययन में तल्लीन था कि, उसमें पढ़ा कि - दो, तीन संख्यात अथवा असंख्यात प्रदेशों में यदि एक भी प्रदेश न्यून हो तब उसे जीव नहीं कहा
' जैनसिद्धान्त बोल संग्रह, भाग 2 (भैरोंदान जी सेठिया) * जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 3, वही, पृ. 190
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