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वैदिक परम्परा में देवों और देवलोक की कल्पना प्रचूर प्राचीन अवश्य है। परन्तु प्राणी जब देहमुक्त हो जाता है अर्थात् मरण का वरण कर लेता है तत्पश्चात् परलोक है, उक्त विचार का समर्थन सुदीर्घ काल के पश्चात् प्राप्त हुआ। वेदों में वर्णित अधिकांश देव प्राकृतिक वस्तुओं के आधार पर कल्पित है। सर्वप्रथम अग्नि जैसे प्राकृतिक पदार्थ को देव रूप में स्वीकृत किया किन्तु उसके बाद अन्य देवों की परिकल्पना की गई, जैसे वरूण आदि कुछ ऐसे देवता है जिनका क्रिया के साथ सम्बन्ध है। जैसे - त्वष्टा, धाता, विधाता आदि। मनुष्य के भावों में देवत्व का आरोपण किया गया और उसी आधार पर देवों की कल्पना की गई, जैसे कि मनु, श्रद्धा। पशुओं में दधिका में देवी भाव का आरोपण किया गया, जड़ पदार्थों में पर्वत, नदी आदि में देवत्व प्रतिष्ठि हुआ। उक्त देव अनादिकाल से है अथवा नहीं है, तत्संदर्भ में वेद-वाक्य में मतमतान्तर है।
स्वर्ग के सम्बन्ध में कल्पना को इस रूप में आकार दिया गया कि इस लोक में मनुष्य जो श्रेष्ठ कार्य करते हैं, वे मर कर स्वर्ग में जाते हैं। इसी प्रकार विष्णु अथवा वरूणलोक की कल्पना भी की गई है। परन्तु प्राचीन ऋग्वेद में पापीजनों के लिए नरक जैसे स्थान के विषय में विचार नहीं किया गया। अपितु उनके सर्वथा नाश के लिए देवताओं से प्रार्थना की गई है। उपनिषदों में ऐसा स्पष्टतः संदर्भ है कि – 'वे अन्धकार से आवृत हैं, उनमें आनन्द का लेश मात्र भी नहीं है। कहीं पर 'नारको वै एष जायते यः शूद्रान्नमश्नाति' वाक्य से नरक का अस्तित्व माना है तो दूसरी तरह 'नहवै प्रेत्य नारकः' इस वाक्य से नारको के अस्तित्व को अस्वीकार भी किया गया है। इस तरह नरक एवं देव के अस्तित्व के बारे में उनका सन्देह होना स्वाभाविक था। व्यक्तजी की शंका का आधार पंचभूत
व्यक्त की यह शंका थी कि पंचभूत है या नहीं? क्योंकि वेदों का एक वाक्य है कि “स्वप्नोपमं वै सकलभित्येषे ब्रह्मविधिरंजमा विज्ञेयः” अर्थात् सम्पूर्ण जगत् एक स्वप्न के सदृश्य है, संसार में भूतों जैसी कोई वस्तु का सद्भाव नहीं है किन्तु अन्य ओर वेद में पृथ्वी देवता, आपो देवता इत्यादि वाक्य भी विद्यमान हैं, जिनसे पृथ्वी आदि भूतों का अस्तित्व सिद्ध होता है। ऐसी स्थिति में उन्हें सन्देह हुआ।
जब हम इन एकादश शंकाओं का मुख्य एवं गौण इन दोनों दृष्टि से वर्गीकरण करते हैं तो यह परिज्ञात होता - 1. जीव का अस्तित्व 2. कर्म का अस्तित्व 3. बन्ध का
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