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कर्म और परलोक एक-दूसरे से संदर्भित है। जब किसी ने वस्त्र सिलाई की क्रिया प्रारम्भ तब यह क्रिया जिस क्षण पूर्ण हुई तब सिला हुआ वस्त्र प्रत्यक्षतः दृष्टिगत है, यह प्रत्यक्ष क्रिया का फल-साक्षात् है किन्तु यह इतना स्पष्ट है कि प्रत्येक क्रिया का फल तत्काल प्राप्त नहीं होता, इस तथ्य की पुष्टि इस रुप में है कि जिस प्रकार भूमि में बीजारोपण भी हुआ किन्तु वृष्टि नहीं हुई तत्सम्बन्धी जो परिश्रम हुआ वह धूलधसरित हो गया। उसी प्रकार सदाचारी को दुःख और दुराचारी को सुख मिलता है, इससे परलोक का सम्बन्ध जुड़ता है। यदि सदाचार सुख और दुराचार दुःख का कारण है तो सदाचारी को उसके सदाचार के फलस्वरूप सुख और दुराचारी को दुराचार के कारण दुःख साक्षात् और तत्काल क्यों नहीं मिलता? इत्यादि प्रश्नों से जब मनुष्य कर्म के बारे में विशेष विचार करने लगा, तब कर्म साक्षात् क्रिया मात्र नहीं; परन्तु अदृष्ट संस्कार रूप भी है, ऐसी कल्पना आई और उसके साथ परलोक पुनर्जन्म का संबंध जुड़ गया। मनुष्य के सुख-दुःख का आधार सिर्फ उसकी प्रत्यक्ष क्रिया मात्र नहीं, किन्तु जो क्रिया संस्कार या अदृष्ट रूप में उसकी आत्मा के साथ संबद्ध है, वह भी है। यही कारण है कि प्रत्यक्ष सदाचारी होने पर भी मनुष्य पूर्व जन्म के दुराचार का फल दुःखरूप और प्रत्यक्ष दुराचारी होने पर भी पूर्व जन्म के सदाचार का फल सुखरूप में भोगता है। तथापि वेद वाङ्मय में परस्पर विचारणाओं की विपरीतता दृष्टिगोचर है क्योंकि कतिपय विचारक भूत समुदाय से चैतन्य की उत्पत्ति स्वीकार करते थे। उनकी स्पष्टतः मान्यता थी कि जब भूतों के नाश होता है तब चैतन्य का भी नाश हो जाता है एतदर्थ हम परलोक को क्यों मानें? भूतों से भिन्न रूप में मानते जब तब वह अनित्य है - जैसे अरणि से उत्पन्न अग्नि नश्वर रूप है। इसी प्रकार परलोक परिप्रेक्ष्य में विविध मन्तव्य हैं अतः इस प्रकार यह शंका हुई।
उसी प्रकार प्राणी जैसा इस भव में है, वैसा ही परभव में भी होता है अथवा नहीं है? क्योंकि एक स्थल पर वेदों में ऐसा संदर्भ है कि “पुरूषोभूतः सतपुरूषत्वमेवाश्रुते, पशवः पशुत्वम्" और अन्य प्रसंग में 'श्रृगालो वै एवं जायते' यः स्तपुरिषो दह्यते। ऐसा उल्लेख भी है जीव का भवान्तर में वैसादृश्य सम्भव है अथवा सदृश्य ही रहता है। इस रूप में विरोधी विचारों के द्वारा शंका का उदभव हआ।
' विशेषावश्यकभाष्य, उत्तरार्द्ध
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