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मंडित पुत्र एवं प्रभास की शंकाओं का निर्देश
मोक्ष और निर्वाण के विषय में कतिपय अभिमत हैं -
मोक्ष अर्थात् – अनात्मा में आत्माभिमान का दूर होना। मुक्तात्मा के स्वरूप के विषय में उपनिषद् साहित्य में ब्रह्म को चैतन्य के साथ-साथ आनन्द स्वरूप भी माना है, नैयायिकों ने ईश्वर में आनन्द का अस्तित्व स्वीकार किया है, किन्तु मुक्तात्मा में नहीं। बौद्धों ने निर्वाण में आनन्द की सत्ता स्वीकृत की है। नैयायिक-वैशेषिक के अभिमत में मुक्तात्माओं के ज्ञान-दर्शन ये दो नहीं होते।
__ ऐसा उल्लेख भी है कि - मोक्षावस्था इन्द्रियग्राह्य नहीं है, वचनगोचर नहीं है, मनोग्राह्य नहीं है तथा तर्कग्राह्य भी नहीं है। कठोपनिषद में भी कहा है - वाणी-मन अथवा चक्षु से इनकी प्राप्ति कदापि संभव नहीं है, इसे केवल सूक्ष्म बुद्धि से गृहित किया जा सकता है। महात्मा बुद्ध निर्वाण और मोक्ष विषयक जैसे गम्भीर प्रश्नों पर मौनस्थ हो जाते थे। उपनिषद वाङ्मय में ब्रह्मदशा का निरूपण नेति-नेति के रूप में हुआ।
इस प्रकार भिन्न-भिन्न मत-प्ररूपणा हुई है एतदर्थ मण्डित पुत्र को बन्ध और मोक्ष के विषय में शंका हुई और श्री प्रभास जी को निर्वाण के अस्तित्व के विषय में जब शंका हुई तब तीर्थंकर प्रभु ने कतिपय युक्तियों और प्रयुक्तियों के द्वारा उनकी शंकाओं का समुचित समाधान किया। सुधर्मा, मौर्यपुत्र, अकम्पित, मैतार्य जी की शंकाओं का दिग्दर्शनः
___ परलोक अर्थात् – मृत्यु के अनन्तर प्राप्त होने वाला लोक । मृत्यु के पश्चात् जीव की जो गति होती हैं, उसमें मनुष्य और तिर्यञ्च योनियां चाक्षुष प्रत्यक्ष हैं, किन्तु देव, प्रेत, नारक ये तीनों अप्रत्यक्ष (दृश्य न) है इसी दृष्टि से उन्होंने परलोक के सम्बन्ध में शंका की जाती है।
गणधरवाद में जीव और कर्म के पश्चात् परलोक के अस्तित्व का विचार किया गया है। जैसे कि पंचम गणधर सुधर्मा स्वामी को इहभव-परभव के सादृश्य- वैसादृश्य के विषय में, सप्तम गणधर मौर्यपुत्र को देव के संबंध में, अष्टम गणधर अंकपित को नरक के परिप्रेक्ष्य में तथा दशम गणधर मैतार्य को परलोक के अस्तित्व के परिपार्श्व में शंकाएँ थीं।
गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. 150
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