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________________ अग्निभूति वेद-वेदान्तों के विशिष्ट ज्ञाता थे ।' किन्तु कर्म के विविध उल्लेखों को जानकर उन्हें शंका हुई कि वास्तव में कर्म का अस्तित्व है या नहीं? तब भगवान महावीर ने एतद्विषयक शंका समाधान किया । मण्डितपुत्र की शंका गणधरवाद में कर्म सिद्धान्त विचार के संग आत्मा के बन्धन और मोक्ष के संदर्भ में भी गहन चिन्तन प्रस्तुत है । और यह भी स्पष्ट है कि सभी भारतीय दर्शनों ने बन्ध और मोक्ष को भी स्वीकृति दी है । परन्तु इस विषय में भिन्न-भिन्न विचारधाराएँ अभिव्यक्त हुई हैं। समस्त दर्शनों ने अविद्या, मोह, अज्ञान एवं मिथ्याज्ञान को बन्ध के कारणों के रूप में माना, इसके अतिरिक्त विद्या और तत्वज्ञान को मुक्ति प्राप्ति का हेतु स्वीकृत किया गया है। कहीं कर्म की प्रधानता है, कहीं तत्वज्ञान की प्रमुखता है । छान्दोग्यपनिषद् में स्पष्टतः उल्लेख है कि अनात्म- देहादि को मानना असुरों का ज्ञान है क्योंकि उससे आत्मा पर के वशीभूत हो जाती है, इसी अज्ञान का नाम 'बन्ध' है और उससे निवृति 'मोक्ष' है । न्याय दर्शन के भाष्य ऐसा संदर्भ है कि 'मिथ्याज्ञान ही मोह' है। सांख्यदर्शन में समुल्लेख है कि 'अनात्मा में आत्म बुद्धि करना ही बन्ध है' । इस प्रकार आत्मा और अनात्मा इन दोनों का बन्ध कब हुआ, यह तथ्य उपनिषदों में प्राप्त नहीं होता है। कर्म और आत्मा इन दोनों के साथ सम्बन्ध अनादिकाल से है या नहीं? यह शंका सहजरुपेण उपस्थित है क्योंकि उपनिषद सम्मद् विविध सृष्टि-प्रक्रिया में जीव की सत्ता ही सर्वत्र अनादि सिद्ध नहीं होती है तब पुनः आत्मा और अनात्मा के सम्बन्ध को अनादि रूप में स्वीकृत करने का तथ्य कैसे प्राप्त हो सकता है? जबकि जैन कर्म - सिद्धान्त के अनुसार आत्मा और अनात्मा के सम्बन्ध को अनादि मानना अनिवार्य है । उपनिषद के टीकाकारों द्वारा यह तथ्य मान्य है ब्रह्म और माया का जो सम्बन्ध है, वह अनादिकालीन है। इस प्रकार विविध मान्यताओं के कारण षष्ठम गणधर को बन्ध और मोक्ष के अस्तित्व पर शंका हुई । 1 गणधरवाद, प्रस्तावना, पृ. 118 Jain Education International 65 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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