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इसके मूल कारण को अन्तस्तत्वों की अपेक्षा बाह्य तत्वों को ही प्रमुख मानकर संतोष का अनुभव कर लिया था। सृष्टि की उत्पत्ति के कारण के रूप में प्रजापति जैसे तत्व की कल्पना की थी। मनुष्य जाति में विद्यमान शरीर की विचित्रता, सुख-दुख, बौद्धिकक्षमता एवं अशक्तिजन्य वैचित्र्य के प्रमुख कारण की खोज में कोई सार्थक प्रयत्न नहीं किया गया था।
वेदों से लेकर ब्राह्णकाल तक यही मान्यता सुस्थिर रही कि मनुष्यों को सुखी होना या प्रसन्न रहना है तब देवों की स्तुति करनी चाहिए। सर्वप्रथम श्वेताश्वतर उपनिषद् में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष इनमें से कोई एक अथवा इन सभी के संयोग समुदाय को विश्व-वैचित्र्य के कारणों के रूप में मान्यता देने का उल्लेख है।'
___ कालवादी केवल काल को ही सब कुछ मानते थे, मनुष्य को जो सुख-दुख प्राप्त होते हैं वे काल के द्वारा प्राप्त होते हैं। प्रकृति के सर्व नियम काल के अनुसार संचालित हैं। स्वभाववाद का स्पष्टतः उद्घोष है कि इस सृष्टि का ईश्वर आदि कोई नियंत्रक नहीं है, और न कोई इस जगत की विचित्रता का हेतु है, सब सहज स्वाभाविक है। यदृच्छावाद का कथन कि कारण के अभाव में कार्य सम्पादित होते हैं। नियतिवाद की मान्यता है कि संसार के जितने भी कार्य होते हैं, वे सब नियति के अधीन हैं। मनुष्य को शुभ-अशुभ कर्म भी नियति के प्रभाव प्राप्त होते हैं।
इन सर्व वादों के होने पर भी विश्व-वैचित्र्य के विषय में कुछ निर्णय नहीं हो सका, किंतु कहीं-कहीं उपनिषदों में संसार और कर्म - अदृष्ट के विषय में उल्लेख मिलता है। वैदिक दर्शन में सर्वप्रथम आत्मा की शारीरिक, मानसिक क्रिया को ही कर्म स्वीकार किया गया, लेकिन उसके बाद यज्ञानुष्ठानों को कर्म रूप में मान्यता दी गई। तब पुनः प्रश्न उत्पन्न हुआ कि ये अस्थायी अनुष्ठान तत्काल नष्ट हो जाते हैं, तब अपना फल स्वयं कैसे दे सकते हैं? अतः मीमांसा दर्शन ने अपूर्व पदार्थ की संकल्पना की। इस प्रकार प्राचीन काल से ही विश्व-वैचित्र्य के कारणों को जानने की उत्कट उत्कंठा रही। वेदों में इन प्रश्नों के समाधान के लिए ब्रह्म ईश्वर, प्रजापति, आदि की कल्पना की गई, उपनिषदों में कालादि को माना गया है। तथापि जिज्ञासा पूर्ववत् बनी रही। आर्य
श्वेताश्वतर उपनिषद कालः स्वभावोनियर्तियद्दच्छा भूतानि योनिः पुरुष रति चिन्त्यम्।
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