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________________ तत्व पर चिन्तन करने की ओर अग्रसर हुए तब वे प्रज्ञा के स्तर पर पहुंच गये और उन्होंने प्रज्ञा को आत्मा के नाम से अभिहित किया । ' प्रज्ञा को आत्मा स्वीकार कर लेने के पश्चात् भी एक प्रश्न उद्वेलित करता रहा कि प्रज्ञा का एक रूप तो वस्तु विज्ञप्ति रूप है, संवेदनरूप है, अनुकूलभोग इष्ट है, वह आत्मा को सुख रूप होता है उसकी चरम स्थिति आनन्द है तब वे दार्शनिक 'आनन्द' को आत्मा के रूप मानने लगे। उनके अभिमतानुसार आनन्द ही आत्मा है । 2 परन्तु अभी तक भी आत्मा के यथार्थ स्वरूप का अनुसंधान व अन्वेषण करना शेष था । आनन्द को आत्मा मान लेने पर भी यह प्रश्न उत्पन्न हुआ कि आनन्द की अन्तरात्मा क्या है ? आनन्द गुण है, अतः एव उसका आधार आनन्द से भिन्न होना चाहिए, फलस्वरुप चिन्तनधारा अग्रगामी हुई तब सभी दार्शनिकों ने कहा देह, इन्द्रिय, प्राण, मन, प्रज्ञा और आनन्द से भी जो अतीत है, वह आत्मा है। इस विचार ने आत्मा को 'चिद्रूप' में उपस्थित किया । इस प्रकार आत्मा सम्बन्धी विचारणा से स्पष्ट है कि भारतीय दार्शनिक चिन्तन के क्षेत्र में अनेक विचित्रताओं, अनेक मान्यताओं एवं पूर्वापर विरोधी विचारों का ऐसा उहापोह हो रहा था कि आत्मा के सम्बन्ध में किसी भी निर्णय पर पहुंचना दुरुहपूर्ण रहा था । आत्मा की स्थिति के सम्बन्ध में एक ओर 'जड़ात्मक अद्वैत' और दूसरी ओर 'चैतनात्मक अद्वैत' इन दोनों ध्रुवों के मध्य इन्द्रभूति गौतम जैसे वेदज्ञों की प्रज्ञा किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रही थी, अन्ततः आत्मा का अस्तित्व है या नहीं? यह प्रमाणों से सिद्ध होता है या नहीं होता? इस प्रकार इन्द्रभूति गौतम एवं वायुभूति के मन में जो संशय थे, भगवान महावीर ने उसका समाधान किया । अग्निभूति की शंका गणधरवाद में जीव के पश्चात् कर्म पर मुख्य रूप से विचार किया गया है। वेदकालीन जन सामान्य से लेकर दिग्गज महर्षियों ने भी मनुष्यों में और अनेक प्रकार के पशु-पक्षियों में विद्यमान विचित्रता व विविधता का अनुभव किया था। उन्होंने 1 कौषीतकी उपनिषद, 3/2/3-3 “प्राणेस्मि प्रज्ञात्मा" 2 तैतिरीय उपनिषद, 2-5-1 3 वही, 2-6 Jain Education International 6353 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001737
Book TitleVishevashyakBhasya ke Gandharwad evam Nihnavavada ki Darshanik Samasyaye evam Samadhan Ek Anushila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVichakshansree
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2006
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Principle
File Size9 MB
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