________________
इन्द्रभूति और वायुभूति जी का सन्देह 1. इन्द्रभूति गौतम के अन्त मन में यह सन्देह था कि आत्मा है या नहीं? क्योंकि वेदों
और उपनिषदों में आत्मा और जीव के संदर्भ में जो चिन्तन है वह जैन-दर्शन से सर्वथा भिन्न दृष्टिकोण से प्रस्तुत है। आत्मा सम्बन्धी संशयद्वय उपस्थित हुए : प्रथम 'जीव का अस्तित्व है या नहीं?' और द्वितीय 'जीव शरीर से भिन्न है या नहीं?' इन्द्रभूति की शंका का स्पष्टतः मन्तव्य है कि जीव का अस्तित्व किसी प्रमाण से स्वयं सिद्ध नहीं है और वायुभूति की शंका का प्रधान आधार यह है कि जीव का स्वरूप कैसे माना जाए? शरीर को ही जीव क्यों न स्वीकार कर लिया जाये?
तत्कालीन दार्शनिकों में आत्मा और ब्रह्म एक गुरु-गम्भीर तथा विकट जटिल विषय था। चार्वाकादि कुछ दार्शनिकों के मन्तव्य पांच महाभूतों के सम्मिलन से आत्म तत्व की निष्पत्ति मानते थे। उनका अभिमत था कि शरीर के विनष्ट होने पर आत्मा स्वतः नष्ट हो जाता है, पर इन सबसे जब आत्मा की स्वतंत्रता विषयक जिज्ञासा का समुचित्त समाधान नहीं हुआ, तब वैचारिक मिथ्या क्रान्ति की धारा अग्रगामी होती हुई देहात्मवाद से चिदात्मवाद तक आ पहुंची।'
सर्वप्रथम देहात्मवाद का विचार उद्भूत हुआ कि कोई भी जीव को शरीर से पृथक् करके नहीं बता सकता है। जब चिन्तकों को भूत अर्थात् देह को आत्मा मानने पर संतुष्टि नहीं हुई तब उनका ध्यान प्राणशक्ति पर केन्द्रित हुआ। निद्रावस्था में भी प्राण निरन्तर गतिशील हैं, तब प्राण को ही आत्मा के रूप में स्वीकार किया गया। परन्तु चिन्तकों ने यह अनुभव किया कि यदि प्राण स्वरूप में प्रतिष्ठित इन्द्रियां जब आत्मा है तब मन के सम्पर्क के बिना ज्ञान क्यों नहीं कर पाती है? जबकि मन की धारा कहां से कहां पहुंच जाती है? तब उन्होंने मन को आत्मा के रूप में संज्ञा दी। तैतिरीय उपनिषद में आत्मा को प्राणमय ही माना गया है।
दार्शनिक समुदाय ने जब मन को आत्म तत्त्व के रूप में स्वीकृति दी तब भी उन्हें अन्तःस्तोष नहीं हुआ क्योंकि इन्द्रिय एवं मन दोनों ही भौतिक हैं। ये दोनों स्वयं कुछ नहीं कर पाते, अतःएव उनका कोई न कोई अभौतिक संचालक तत्व अवश्य होना चाहिए, इस
' सूत्रकृतांगसूत्र 1/1/1, पृ. 7-8, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ' तैतिरीय उपनिषद, 2-3/1, “प्राणमयादन्योइन्तरात्मा मनोमयः"
62
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org