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प्रथम निह्नव जमालि ने बहुरतवाद की प्ररूपणा की, द्वितीय निह्नव तिष्यगुप्त ने जीवप्रादेशिकवाद की चर्चा की, तृतीय निह्नव आचार्य आषाढ़ द्वारा अव्यक्तवाद की संस्थापना की गई। चतुर्थ निह्नव अश्वमित्र ने सामुच्छेदिकवादको प्रस्तुत किया, पंचम निह्नव गंग ने एक समय में दो क्रियाओं का अनुभव हो सकता है, इसका प्रतिपादन किया, षष्ठम निह्नव ने त्रैराशिक मत की निरूपन की तथा सप्तम निह्नव गोष्ठामाहिल ने - जीव और कर्म का बन्ध नहीं होता, इस प्रकार उन्होंने अबद्ध सिद्धान्त की प्ररूपणा की
है।
प्रथम निह्नव भगवान महवीर के केवलज्ञान की प्राप्ति के चतुर्दश वर्ष पश्चात् हुआ तथा कालान्तर में छ: निह्नव और हुए। निह्नववाद के द्वारा उनके जैन सिद्धान्त विरूद्धमतों का परिज्ञान होता है तथा उनके मत अधिक दोषपूर्ण थे, उसका विस्तृत वर्णन मिलता है। इस दृष्टि से विशेषावश्यक भाष्य में निह्नववाद की विस्तृत चर्चा प्राप्त होती
गणधरवाद व निह्नववाद की दार्शनिक समस्याओं का सामान्य परिचय
गणधरवाद में प्रतिपाद्य समस्त विषयों की पृष्ठभूमि में वेद और उपनिषदों के विविध विचारों का प्रवाह प्रवहमान है। इसमें आत्मा, कर्म और परलोक इन तीन विषयवस्तुओं को केन्द्र में रखकर ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक दृष्टि से विचारणा की गई
यह सुनिश्चित है कि इन्द्रभूति गौतम आदि गणधरों के ज्ञान में न्यूनता नहीं थी, किन्तु दृष्टि पर एक ऐसा आवरण था, जो एकान्तिक आग्रह से बद्धमूल था, जिससे वेद, उपनिषद आदि चतुर्दश विद्याओं का पारगामी प्रकाण्ड पांडित्य प्राप्त कर लेने के अनन्तर भी वे अपने आपको किसी घनीभूत अन्धकार में इतस्ततः परिभ्रमण जैसा अनुभव कर रहे
सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान महावीर से उनकी स्थिति प्रछन्नरूप नहीं थी, निर्दाष वचनों से उनका एकान्तिक कदाग्रहों की श्रृंखला छिन्न-भिन्न हो गई थी। परिणामतः उन्हें अनेकान्त दृष्टि का प्रकाश प्राप्त हुआ और स्वात्मलक्षी मार्ग प्राप्त हुआ।
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